Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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नवम अध्याय साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ
निश्चय और व्यवहार की परस्पर सापेक्षता को अमान्य करनेवाला पण्डितवर्ग निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में पूर्वोक्त प्रकार से कार्य-कारणात्मक साध्यसाधकभाव भी स्वीकार नहीं करता। इसलिये वह मोक्षप्राप्ति के लिये एकमात्र निश्चयनय को ही उपादेय मानता है, व्यवहारनय को नहीं।' किन्तु, चूँकि आगम में साध्यसाधकभाव बतलाया गया है, इसलिए वह इसका सर्वथा अपलाप भी नहीं कर सकता, परिणामस्वरूप उक्त पण्डितजनों ने साध्यसाधकभाव की नई व्याख्याएँ की हैं जो अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण, अयुक्तिसंगत एवं हास्यास्पद हैं। वे कार्यकारणात्मक साध्यसाधकभाव को अमान्य करने के निम्नलिखित कारण बतलाते हैं -
(१) सविकल्पावस्था ( शुभोपयोग ) से निर्विकल्पावस्था ( शुद्धोपयोग ) में पहुँचाना परद्रव्याश्रित व्यवहारधर्म का कार्य नहीं है।'
... (२) शुभोपयोग बन्ध का ही कारण है। वह आत्मशुद्धि में तनिक भी सहायक नहीं है।
(३) निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं है। निश्चयधर्म के आने पर व्यवहारधर्म अपने आप आता है। अत: व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का अविनाभावी है, हेतु नहीं।
(४) पहले की गयी साधना से वर्तमान में निश्चयधर्म की प्राप्ति नहीं होती। निमित्तनैमित्तिक योग एक काल में होता है। तात्पर्य यह है कि यदि शुभोपयोग से तुरन्त ( प्रत्यक्षरूप से ) शुद्धोपयोग हो तभी व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक कहला सकता है। किन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि दोनों की प्रकृति में महान् अन्तर
१. (क) जैन-तत्त्वमीमांसा/पृ० २५४-२५८
(ख) मोक्षमार्ग प्रकट करने का उपाय : तत्त्वनिर्णय/पृ० २७-२८ २. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा/भाग२/पृ० ८०१ ३. वही/भाग २/पृ० ७८०-७८१ ४. वही/भाग १/पृ० १५७ ५. वही/भाग २/पृ० ५५१ ६. वही/भाग १/पृ० १५७
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