Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १६९
के मन्द उदय होते सहकारी कारण हैं। असाता का प्रबल उदय होते औषधादिक बाह्य कारण रोग मेटने कू समर्थ नाहीं है। ऐसा विचार असाताकर्म के नाश का कारण परम समता धारण करि संक्लेशरहित होय सहना, कायर नाहीं होना सो ही साधुसमाधि है। बहुरि इष्ट का वियोग होते अर अनिष्ट का संयोग होते ज्ञान की दृढ़ता तैं जो भय को प्राप्त नाहीं होना सो साधुसमाधि है।"
- 'भगवती आराधना' की टीका के निम्न शब्द भी पठनीय हैं - "बड़े-बड़े धन्वन्तरि-सदृश वैद्य, इलाज के करनेवाले, तो हू कर्म के उदयकरि आई रोगजनित वेदना, ताहि दूर करने कूँ समर्थ नाहीं। .... तातें धैर्य धारण करि अपना बाँध्या कर्म का फल समभाव करि भोगो, तातें तुमारे नवीन कर्म नाहीं होय, अर पूर्वे बाँध्या तिनकी निर्जरा होय। उदय में आया कर्म कूँ जिनेन्द्र, अहमिन्द्र, समस्त इन्द्र, देव टारिने | समर्थ नाहीं हैं। तातै अरोक ( अटल ) जानि असाता का उदय में दुःख मति करो, दुःख करोगे तो अधिक असाता कर्म और बँधेगा, अर उदय तो टरेगा नाहीं। असातावेदनीयादिक अशुभकर्म कूँ उदय आवता समय विषै जो विलाप करना, रोवना, संक्लेश करना, दीनता भाखना निरर्थक है, दुःख मेटने को समर्थ नाहीं। केवल वर्तमान काल में दुःख बधावै ( बढ़ाता है ), अर आगाने ( भविष्य में ) तिर्यञ्चगति तथा नरक-निगोद कूँ कारण, ऐसा तीव्रकर्म बाँधे, जो अनन्तकाल हूँ में न छूटे। .... तातें कर्म के ऋण से छूट्या चाहो तो कर्म के उदय में आकुलता त्यागि परमधैर्य धारण करो।"२
इस प्रकार क्षमा, समता, अहिंसा आदि भाव तीव्रकषायोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर विशुद्धता का विकास करते हैं।
संक्षेप में, संयम और तप शरीर को परद्रव्यों की अधीनता से मुक्त कर उसे परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त बनने से रोकते हैं, अपरिग्रह, मूर्छारूप तीव्रकषायोदय के निमित्त को निरस्त करता है, भक्ति और स्वाध्याय विषयों के चिन्तन-स्मरण आदि के निरोध द्वारा चारित्रमोह के तीव्रोदय पर रोक लगाते हैं तथा क्षमा, समता, धैर्य, अहिंसादि भाव कर्मोदय के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर संक्लेशपरिणाम का प्रतीकार करते हैं। इस प्रणाली से विशुद्धता का विकास किस तरह होता है यह बात श्री जिनेन्द्रवर्णी के निम्न वचनों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है -
___ व्यक्ति ज्यों-ज्यों हृदय में उतरता हुआ प्रेम ( अहिंसाक्षमादिभावों ) तथा
१. रत्नकरण्डश्रावकाचार/षष्ठ-भावना अधिकार/पृ० २६५ २. भगवतीआराधना/गाथा १६१९-१६४१
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