Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १६७
होने देता। जैसे कोई उसे गाली देता है, तो वह गाली से उत्तेजित होने में अपनी हानि का ख्याल कर क्षमाभाव में स्थित हो जाता है और गाली से विचलित नहीं होता। इससे गाली निष्प्रभाव हो जाती है और क्रोधकर्म के उदय का निमित्त नहीं बनती। इसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय में कोई उसे पत्थर मारता है, तो पत्थर की पीड़ा को वह ज्ञान के बल से अनार्तभावपूर्वक सह लेता है। परिणामस्वरूप आर्तभाव के अभाव में तीव्रकषाय का उदय नहीं होता। इसी तरह निःस्पृहता लोभ के निमित्तों को, निर्भयता भय के निमित्तों को, मार्दव मान के निमित्तों को, आर्जव माया के निमित्तों को, दया या अहिंसानिष्ठा हिंसा के निमित्तों को, ब्रह्मचर्यनिष्ठा काम के निमित्तों को, सम्यक्त्व शोकादि के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर उक्त कषायों के उदय को असम्भव बनाते हैं।
कर्मोदय के निमित्तों को शक्तिहीन बना देने वाले साधक को ही योगी और शूर कहा गया है -
गुणाधिकतया मन्ये स योगी गुणिनां गुरुः ।
तन्निमित्तेऽपि नाक्षिप्तं क्रोधाद्यैर्यस्य मानसम् ।।'
- जिस मुनि का मन क्रोधादि के निमित्त मिलने पर भी क्रोधादि से विक्षिप्त नहीं होता, वही गुणाधिक्य के कारण योगी और गुणीजनों का गुरु है।
जो णवि जादि वियारं तरुणियण-कडक्खबाणवितो वि । सो चेव सूरसूरो रणसूरो णो हवे सूरो ।।
-जो युवतियों के कटाक्षरूपी बाणों से बेधा जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता, वही सच्चा शूर है, रणशूर शूर नहीं है। - कर्मोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर ही तीव्र क्रोधादि को रोका जा सकता है, कर्मोदय हो जाने पर नहीं, क्योंकि कर्म का उदय होने पर कषायादिरूप फल का अनुभव हुए बिना नहीं रहता। फलानुभव कराने का नाम ही विपाक या उदय है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी ने कहा है - 'द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः।३
गोम्मटसार कर्मकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका ( गाथा २६४ ) में कहा गया है - "स्वस्वभावाभिव्यक्तिरुदयः, स्वकार्यं कृत्वा स्वरूपपरित्यागो वा।"
१. ज्ञानार्णव १९/७५ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा ४०४ ३. सर्वार्थसिद्धि २/१
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