Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव । १५७
व्यवहारचारित्र आदि प्रशस्त विषयों में लगाता है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए आचार्य जयसेन कहते हैं -
“जब विशिष्ट संहनन आदि शक्ति के अभाव में जीव निज शुद्धात्मस्वरूप में निरन्तर स्थित नहीं रह पाता तब वह क्या करता है ? कभी शुद्धात्मभावना की सिद्धि में सहायक जीवादि पदार्थों के प्रतिपादक आगम में रुचि लेता है। कभी जैसे कोई राम आदि पुरुष दूरदेशस्थित अपनी सीता आदि पत्नी के समीप से आये पुरुषों का पत्नी से प्रेम होने के कारण सन्मान आदि करता है, वैसे ही वह मोक्षलक्ष्मी को वश में करने के लिए तीर्थङ्कर परमदेव तथा गणधरदेव, भरत, सगर, राम, पांडव आदि महापुरुषों के चरितपुराणादि को अशुभराग से बचने हेतु तथा शुभधर्म में अनुराग होने के कारण सुनता है।''
यही बात आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्न शब्दों में कही है -
"अर्हत्, सिद्ध और साधु की भक्ति, व्यवहारचारित्र तथा गुरुओं की उपासना ये प्रशस्त विषय हैं। इनमें होनेवाला राग प्रशस्तराग कहलाता है। यह प्राय: स्थूल लक्ष्य रखने वाले केवलभक्तिप्रधान अज्ञानी को होता है। कभी-कभी वीतरागदशावाले उच्च गुणस्थान में न पहुँच पाने के कारण अथवा वहाँ से च्युत होने पर अप्रशस्त विषयों में राग का निषेध करने हेतु ज्ञानी को भी होता है।"२
इस प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग निर्विकल्प समाधि के अभाव में जीव को अशुभोपयोग से बचाकर प्राप्त भूमिका को दूषित होने से रोकता है तथा पापकर्मों के बन्ध को टालता है। विशुद्धता के विकास में शुभोपयोग की मनोवैज्ञानिकता
कर्मों का उदय और उदीरणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से होती है। जैसे स्वर्णादि द्रव्य या सांसारिक सुख की वस्तुएँ दिखने पर मोही
१. पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १७० २. “अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिर्धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधानचेष्टा, गुरूणामाचार्यादीनां
रसिकत्वेनानुगमनम्। एषः प्रशस्तो राग: प्रशस्तविषयत्वात्। अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थ तीव्ररागज्वरविनोदार्थ वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।"
पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा १३६ ३. (क) "द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविध: पाको विपाकः।"
सर्वार्थसिद्धि ८/२१ (ख) “क्षेत्र, काल, भाव और पुदगल के निमित्त से उदय और उदीरणारूप फलविपाक
होता है। यहाँ 'क्षेत्र पद से नरकादि क्षेत्र का, 'भव' पद से जीवों के एकेन्द्रियादि
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