Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
निश्चय - व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य - साधकभाव / १४९
- जो आत्मा तप, श्रुत और व्रत का धारक होता है वही ध्यानरूपी रथ ( शुद्धोपयोग ) की धुरा को धारण कर सकता है। इसलिए, हे भव्यो ! ध्यान की प्राप्ति के लिये तुम्हें निरन्तर तप, श्रुत और व्रत इन तीनों में तत्पर रहना चाहिये । निम्नलिखित श्लोक में ध्यान अर्थात् शुद्धोपयोग के पाँच हेतु बतलाए
गए हैं
―
वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं परीषहजयश्चेति पञ्चैते
-
- वैराग्य, तत्त्वज्ञान, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग, साम्यभाव तथा परीषहजय ये पाँच ध्यान के हेतु हैं ।
आचार्य जयसेन ने बतलाया है कि शुद्धोपयोग का आरम्भ अप्रमत्त ( सप्तम ) गुणस्थान से होता है और क्षीणकषाय ( बारहवें ) गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता जाता है - " तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः । १२
समचित्तता । ध्यानहेतवः ।।
३
इसके नीचे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय इनमें से कुछ का या सभी का अस्तित्व रहने के कारण शुद्धोपयोग सम्भव नहीं होता। इन सबको अशुभोपयोग कहा गया है। इसलिये शुद्धोपयोग को सम्भव बनाने के लिये इन चारों प्रत्ययों का अभाव करना आवश्यक है, जो मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से होता है। इसका उपाय है श्रावकधर्म और मुनिधर्म के रूप में सम्यग्दर्शनपूर्वक शुभपरिणाम का अभ्यास करना । किन्तु, सम्यग्दर्शन स्वयं एक दुर्लभ वस्तु है । केवल इसे पाने के लिये जन्म-जन्मान्तर तक साधना करनी पड़ सकती है। यह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी के उपशमादि से प्रकट होता है। इसका उपाय है मोक्ष को लक्ष्य बनाकर तत्त्वज्ञान का अभ्यास करते हुए शुभ परिणाम में प्रवृत्त होना । "
१. बृहद्रव्यसंग्रह / गाथा ५७ / ब्रह्मदेवटीका में उद्धृत
२. प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति १/९
३. "स्वशुद्धात्मसंवित्तिविनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु ।” बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका / गाथा ३५
४. “मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभः।”
प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति १ / ९
५. " प्रथमसम्यक्त्वं गृहीतुमारभमाणः शुभपरिणामाभिमुखः .... वर्धमानशुभपरिणामप्रतापेन सर्वकर्मप्रकृतीनां स्थितिं ह्रासयन् ।” तत्त्वार्थवार्तिक ९/१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org