Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सप्तम अध्याय
निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता
परस्पर पूरक
वस्तु अनेकान्त है अर्थात् परस्परविरुद्धधर्मद्वयात्मक है। निश्चय और व्यवहार नय उनमें से एक-एक धर्म का प्रकाशन करते हैं, इसलिये दोनों मिलकर ही वस्तु का पूर्ण स्वरूप दर्शाने में समर्थ होते हैं, अतः वे परस्पर पूरक हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा भी है - __ “एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनम्।"
-एक आँख से देखने पर वस्तु का एक पक्ष दिखाई देता है, दोनों आँखों से देखने पर सम्पूर्ण वस्तु के दर्शन होते हैं। परस्पर अविनाभावी
निश्चय और व्यवहार, उत्तर और दक्षिण अथवा दाएँ और बाएँ के समान परस्पर अविनाभावी हैं। उत्तर के भेद के बिना दक्षिण का भेद सम्भव नहीं है और दक्षिण के भेद के बिना उत्तर का भेद असम्भव है। परस्पर विरुद्ध दिशाओं में से जब एक को उत्तर नाम दिया जाता है, तभी उससे विरुद्ध दिशा के लिये दक्षिण संज्ञा घटित होती है। इसी प्रकार परस्पर विरुद्ध धर्मों में से जब कोई धर्म व्यवहारनय से घटित होता है, तभी तद्विरुद्ध धर्म निश्चयनय से घटित होता है अथवा जब किसी धर्म की उपपत्ति निश्चयनय से होती है, तभी उससे विरुद्ध धर्म की उपपत्ति व्यवहारनय से होती है। इसलिए जहाँ निश्चयनय अपने विषयभूत धर्म का मुख्यत: प्रकाशन करता है, वहीं प्रतिपक्षीरूप से सम्बद्ध व्यवहारनय के विषयभूत धर्म की सत्ता भी द्योतित करता है। इसी तरह व्यवहारनय अपने विषयभूत धर्म को मुख्यत: विज्ञापित करने के साथ-साथ प्रतिपक्षीरूप से सम्बद्ध निश्चयनय के विषयभत धर्म का अस्तित्त्व भी मौनरूप से ज्ञापित करता है। इस प्रकार निश्चयनय में व्यवहारनय के विषय की स्वीकृति समायी होती है और व्यवहारनय में निश्चयनय के विषय की। यही निश्चय
और व्यवहार की परस्पर सापेक्षता है। इसलिए जब यह कहा जाता है कि 'आत्मा १. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, २/२२ २. (क) “निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृति:, सापेक्षत्वमुपेक्षा।"
आप्तमीमांसा-भाष्य/कारिका १०८ (ख) “सापेक्षाः परस्परसम्बद्धास्ते नया:।" देवागमवृत्ति/कारिका १०८
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