Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
व्यवहार असद्भूत है, क्योंकि अज्ञानियों का अनादि संसार से ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है। इसलिये गाथा ८५ में दूषण देते हुए निश्चयनय का अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है।'
तात्पर्य यह कि कथित विद्वद्वर्ग असद्भूतव्यवहारनय को अज्ञानियों के अनादिरूढ़ व्यवहार का पर्यायवाची मानता है, जो वस्तु के वास्तविक धर्म का प्रतिपादन नहीं करता, अपितुं अन्य वस्तु के धर्म को अन्य वस्तु का कहता है। जिस नय का अपना कोई वास्तविक विषय नहीं है, उसके साथ निश्चयनय की सापेक्षता कैसे हो सकती है ?
विद्वद्वर्ग का यह मत अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है। इसके निम्नलिखित कारण
(१) असद्भूतव्यवहारनय को अज्ञानियों के व्यवहार का पर्यायवाची मानने से उसका नयत्व समाप्त हो जाता है, जिससे जिनेन्द्रदेव का उसे नय संज्ञा देकर श्रुतज्ञानरूप प्रमाण का अवयव बतलाने का वचन मिथ्या सिद्ध होता है। तथा असद्भूत व्यवहारनय के मिथ्या सिद्ध होने से बन्ध और मोक्ष के भी असत्य होने का प्रसंग आता है। इस स्थिति में नयान्तरसापेक्ष न रहने से निश्चयनय आत्मा को सर्वथा शुद्ध प्रतिपादित करने वाला मिथ्यानय ठहरता है।
(२) 'उपचार' असद्भूतव्यवहारनय का विषय नहीं है, स्वयं असद्भूतव्यवहारनय है। वह वस्तुधर्म के प्रतिपादन की लक्षणात्मक एवं व्यंजनात्मक शैली है। अन्य वस्तु के धर्म द्वारा वह प्रस्तुत वस्तु के ही धर्म को प्रतिपादित करता है, यह व्यवहारनय के प्रकरण में सिद्ध किया जा चुका है।
(३) असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तु का स्वधर्म ही है, जैसे भावपर्याय मूलक असद्भूतव्यवहारनय के विषय आत्मा के कर्मोपाधिनिमित्तक शुद्ध-अशुद्ध भाव हैं। संश्लेषादि बाह्य सम्बन्ध बाह्यसम्बन्धमूलक असद्भतव्यवहारनय के विषय हैं तथा शरीर और जीव का विलक्षण अभेद, स्वयं को पुद्गलकर्मों से आबद्ध करने में जीव का स्वातन्त्र्य अथवा पुद्गलद्रव्य के कर्मरूप से परिणमित होने में जीव का प्रेरकत्व आदि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय के विषय हैं। इन समस्त विषयों का निरूपण व्यवहारनय के प्रकरण में किया जा चुका है। इस प्रकार चूँकि असद्भूतव्यवहारनय का विषय वस्तु का स्वधर्म ही है, इसलिये निश्चयनय की उससे सापेक्षता
(४) निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय के निषिद्ध होने का अभिप्राय सर्वथा १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा, २/४३६-४३७
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