Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सद्भूतव्यवहारनय । ११५
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् ।
परभावस्य कर्त्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।।
- आत्मा ज्ञान है, स्वयं ज्ञान है, अत: वह ज्ञान के अतिरिक्त किसका कर्ता हो सकता है ? उसे परभाव का कर्ता मानना व्यवहारियों ( व्यवहार को परमार्थ समझने वालों ) का अज्ञान है।
“एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण।"२
-( पूर्वोक्त कारण से सिद्ध होता है कि ) आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है। __“जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह निश्चयनयेन कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च।"३
- निश्चयनय से जीव का स्वपरिणामों के साथ ही कर्ता-कर्मभाव एवं भोक्ता-भोग्यभाव है।
तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापनेन कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानम्।"
- ( उसीप्रकार ) ज्ञानं भी आत्मा से अभिन्न होने के कारण कर्ता-अंश की अपेक्षा आत्मासंज्ञा तथा करण-अंश की अपेक्षा ज्ञानसंज्ञा धारण कर कारणभूत जीवादि पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों ( आत्मा में संक्रमित पदार्थप्रतिबिम्बों) को अभिव्याप्त करता है ( जानता है )।
“ज्ञानी ज्ञानाद्यर्थान्तरभूतस्तदा स्वकरणांशमन्तरेण परशुरहितदेवदत्तवत् करणव्यापारासमर्थत्वाद् अचेतयमानोऽचेतन एव स्यात्। ज्ञानञ्च यदि ज्ञानिनोऽर्थान्तरभूतं तदा तत्कशमन्तरेण देवदत्तरहितपरशुवत् कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वाद् अचेतयमानमचेतनमेव स्यात्। न च ज्ञानज्ञानिनोर्युतसिद्धयोस्संयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति।५
- ज्ञानी यदि ज्ञान से भिन्न पदार्थ हो तो अपने करण-अंश के बिना परशुरहित देवदत्त के समान करण-व्यापार में असमर्थ होगा। फलस्वरूप ज्ञानरूप करण ( साधकतम ) के अभाव में स्व-पर के बोध में समर्थ न हो पाने से अचेतन ही ठहरेगा। इसी प्रकार यदि ज्ञान ज्ञानी से भिन्न हो तो अपने कर्ता-अंश के बिना
१. समयसार/कलश, ६२ २. वही/गाथा ८२ ३. वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ८३ ४. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका १/३० ५. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा ४८
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