Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
ज्ञान-व्यापार में असमर्थ होगा, क्योंकि जैसे देवदत्तरूप कर्ता के अभाव में परशुरूप करण अपने व्यापार में प्रवृत्त नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञानीरूप कर्ता के बिना ज्ञानरूप करण अपने पदार्थबोध के व्यापार में प्रवृत्त नहीं हो सकता। इस तरह उसके द्वारा पदार्थ-परिच्छित्ति का कार्य न हो पाने से अचेतन ही सिद्ध होगा। ऐसा भी नहीं है कि ज्ञान और ज्ञानी युतसिद्ध ( सांयोगिक ) हों, जिससे ज्ञानी में संयोग से चेतनत्व माना जाय, क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी के पृथक् होने पर विशेष के अभाव में द्रव्य का अभाव हो जायेगा और निराश्रय होने पर गुणों की सत्ता न रह पावेगी।
आत्मा अपनी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक पर्याय की अपेक्षा साधकतम होने से करण है, मुक्त पर्याय की अपेक्षा साध्य होने से कर्म है और दोनों पर्यायों में स्वतन्त्ररूप से परिणमित होने की अपेक्षा कर्ता है। यह बात आचार्य कुन्दकुन्द के वचन का भाष्य करते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने निम्नलिखित शब्दों में कही है -
“येनैव हि भावनात्मा साध्य: साधनं च स्यात् तेनैव नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते। तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव वस्त्वन्तराभावात्।"
- जिस भाव से आत्मा साध्य और साधन है, उसी भाव से वह नित्य उपासना के योग्य है, इस बात को मन में रखकर दूसरों को व्यवहारनय से उपदेश दिया गया है कि साधु के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र नित्य उपासनीय हैं। वस्तुत: वे तीनों आत्मा से भिन्न वस्तु न होने के कारण आत्मा ही हैं।
यही बात सूरि जी अधोलिखित पंक्तियों में कहते हैं -
"आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव, तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात्। तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः।।२
- यद्यपि आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है, तो भी उसमें उपायभाव ( साधकभाव ) और उपेयभाव ( साध्यभाव ) दोनों विद्यमान हैं, क्योंकि वह एक होते हुए भी साधक और सिद्ध उभयरूप परिणमित होती है। इनमें जो साधकरूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय।
__ इस तरह अद्वैत आत्मा में कर्ताकर्मादिभाव नियतस्वलक्षण की अपेक्षा निश्चयनय से सत्य है, क्योंकि परमार्थतः एक ही वस्तु में कर्ताकर्मादि के लक्षण
१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा १६ २. वही/स्याद्वादाधिकार, पृष्ठ ५३१ .
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