Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सद्भूतव्यवहारनय । ११९ “यद्यप्यभेदनयेनैकरूपा चेतना तथापि सामान्यविशेषविषयभेदेन दर्शनज्ञानरूपा भवति।
आचार्य कुन्दकुन्द ने निम्नलिखित गाथा में द्रव्य की विश्वरूपता ( अनेकरूपता ) पर प्रकाश डाला है -
ण वियप्पदि णाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि ।
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियत्ति णाणीहि ।।२ --- ज्ञानी ज्ञान से पृथक् नहीं है और ज्ञान अनेक हैं, इसलिए ज्ञानियों ने द्रव्य को विश्वरूप ( अनेकरूप ) कहा है।
अमृतचन्द्र सूरि ने इसका अभिप्राय इस प्रकार स्पष्ट किया है -
"द्रव्यं हि सहक्रमप्रवृत्तानन्तगुणपर्यायाधारतयाऽनन्तरूपत्वाद् एकमपि विश्वरूपमभिधीयत इति।"
- द्रव्य सहप्रवृत्त तथा क्रमप्रवृत्त अनेक गुणपर्यायों का आधार है, इसलिए अनन्तरूप होने के कारण एक होते हुए भी विश्वरूप कहलाता है।
___आत्मादि पदार्थों की यह अनेकरूपात्मकता धर्म-धर्मी के संज्ञादिभेद पर आश्रित है, इसलिए बाह्यभेदावलम्बी सद्भूतव्यवहारनय से अवलोकन करने पर दृष्टिगोचर होती है।
. सविशेषत्व का हेतु . आत्मादि द्रव्यों से दर्शनज्ञानादि गुण संज्ञादि की अपेक्षा भिन्न होते हैं, इस भिन्नता के कारण वे 'विशेष' कहलाते हैं। आत्मा का असाधारणस्वभावभूत चैतन्यभाव दर्शनज्ञानादि समस्त गुणों का आधार होने से 'सामान्य' है और दर्शनज्ञानादि गुण उसके विशिष्ट रूप हैं, इसलिए 'विशेष' शब्द से अभिहित होते हैं। समयसार की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा के सविशेषत्व को स्पष्ट करते हुए कहा
१. समयसार/गाथा २९८-२९९ । २. पश्चास्तिकाय/गाथा ४३ ३. “न चैवमुच्यमानेऽप्येकस्मिन्नात्मन्याभिनिबोधकादीन्यनेकानि ज्ञानानि विरुध्यन्ते द्रव्यस्य
विश्वरूपत्वात्।" वही/तत्त्वदीपिका/गाथा ४३ ४. वही ५. “एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि सम्बद्ध आत्मद्रव्याद् अविभक्तप्रदेशत्वेनाऽनन्येपि संज्ञादि___ व्यपदेशनिबन्धैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः।"
पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा ५१-५२
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