Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
__ अनेकत्व का हेतु संज्ञादिभेद के कारण ही एक वस्तु में अनेकत्व ( अनेकरूपता ) दिखाई देता है। जैसे संज्ञादि की अपेक्षा गुण, गुणी ( द्रव्य ) से भिन्न है, इसलिए गुणगुणीरूप से वस्तु में अनेकत्व है।' आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं -
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः ।।
एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचकः ।।
– यद्यपि आत्मा वस्तुरूप से एक है तथापि दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन रूपों में परिणत होता है, इसलिए त्रिस्वभावात्मकता के कारण व्यवहारनय से अनेकरूप है।
समयसार की सातवीं गाथा का व्याख्यान करते हुए आचार्य जयसेन लिखते
"जैसे अभेद की ओर से अवलोकन करनेवाले निश्चयनय से अग्नि एकवस्तुरूप से अनुभव में आती है, किन्तु ( संज्ञादिरूप ) भेदपक्ष से देखनेवाले व्यवहारनय से जलाने की अपेक्षा दाहक, पकाने की अपेक्षा पाचक और प्रकाश करने की अपेक्षा प्रकाशक इन तीन रूपों में प्रतीत होती है, वैसे ही जीव भी अभेदावलम्बी निश्चयनय से शुद्धचैतन्यरूप एक वस्तु है, तो भी संज्ञादिभेद का अवलम्बन करने वाले व्यवहारनय से निरीक्षण करने पर जानने की अपेक्षा ज्ञान, देखने की अपेक्षा दर्शन और आचरण करने की अपेक्षा चारित्र, इन तीन रूपोंवाला दृष्टिगोचर होता
उन्होंने एक अन्य गाथा की टीका में लिखा है कि यद्यपि अभेदनय ( मौलिक-अभेदावलम्बी निश्चयनय ) से चेतना एकरूप है, तथापि सामान्य और विशेष के भेद से दर्शनज्ञानरूप ( अनेकरूप ) है -
१. “अत एव च सत्ताद्रव्ययोः कथञ्चिदनान्तरत्वेऽपि सर्वथैकत्वं न शङ्कनीयं, तद्भावो
ह्येकत्वस्य लक्षणम्। यत्तु न तद्भवद् विभाव्यते तत्कथमेकं स्यात् ? अपि तु गुणगुणि
रूपेणानेकमेवेत्यर्थः।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/१४ २. समयसार/कलश १७ ३. “यथा निश्चयनयेनाभेदरूपेणाग्निरेक एव पश्चाद भेदरूपव्यवहारेण दहतीति दाहकः, - पचतीति पाचकः, प्रकाशं करोतीति प्रकाशकः इति व्युत्पत्त्या विषयभेदेन त्रिधा भिद्यते
तथा जीवोऽपि निश्चयरूपाभेदनयेन शुद्धचैतन्यरूपोऽपि भेदरूपव्यवहारनयेन जानातीति ज्ञानं, पश्यतीति दर्शनं, चरतीति चारित्रमिति व्युत्पत्त्या विषयभेदेन त्रिधा भिद्यते इति।"
वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ७
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