Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१२२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
१
- मैं निश्चयनय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ और सदा रूपरहित हूँ । 'पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयओ।' 'पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयओ।'
-
- प्रज्ञा के द्वारा ऐसा अनुभव करना चाहिए कि जो द्रष्टा है, वही निश्चयनय से मैं हूँ, जो ज्ञाता है वही निश्चयनय से मैं हूँ ।
२
इन निरूपणों में 'ज्ञानदर्शनसुखस्वभाव', 'दर्शनज्ञानमय' तथा 'ज्ञाता' और 'द्रष्टा' विशेषणों के द्वारा विशेष्यभूत आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया हैं। इनसे आत्मा के अनेकत्व एवं सविशेषत्व का भी प्रतिपादन होता है। 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । '३
द्रव्य गुणपर्यायवाला है।
'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । *
- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का समूह मोक्ष का मार्ग है । इन परिभाषाओं में धर्म और धर्मी को विशेषण - विशेष्य के रूप में वर्णित कर द्रव्य तथा मोक्षमार्ग के लक्षण एवं अनेकत्व और सविशेषत्व प्रतिपादित किये गये हैं। ये समस्त निरूपण एवं परिभाषाएँ सद्भूतव्यवहारनय से उपपन्न होती हैं । जहाँ धर्म के द्वारा धर्मी की पहचान कराना आवश्यक नहीं है वहाँ उनका षष्ठी आदि विभक्तियों के प्रयोग द्वारा भेदपूर्वक कथन नहीं किया जाता । वहाँ धर्मधर्मी की अभिन्नता के द्योतक जो द्रव्यवाचक 'आत्मा' अथवा 'चैतन्य' आदि शब्द हैं, उनके द्वारा ही आत्मादि पदार्थों का निर्देश किया जाता है। आचार्यों ने कहा भी है
" जैसे कोई ब्राह्मण आदि पुरुष म्लेच्छ को समझाने के समय ही म्लेच्छभाषा बोलता है, शेष समय में नहीं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अज्ञानी को प्रतिबोधित करते समय ही व्यवहारनय का आश्रय लेता है ( व्यवहारनयात्मक भाषा का प्रयोग करता है ) अन्य समय में नहीं । ५
१. समयसार/गाथा २९८-२९९
२. वही/गाथा २९८-२९९
३. तत्त्वार्थसूत्र / पञ्चम अध्याय / सूत्र ३८
४. “ तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात् पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति ।" प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति ३/४२
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"अथ यथा कोऽपि ब्राह्मणादिविशिष्टो जनो म्लेच्छप्रतिबोधनकाले एव म्लेच्छभाषां ब्रूते न च शेषकाले तथैव ज्ञानीपुरुषोऽप्यज्ञानिप्रतिबोधनकाले व्यवहारमाश्रयति न च शेषकाले ।” समयसार / तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११
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