Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय । ३७
सिद्ध होता है। इस तथ्य की मीमांसा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं -
“आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है, तो भी उसमें उपायभाव और उपेयभाव विद्यमान हैं, क्योंकि वह एक होते हुए भी साधक और सिद्ध उभयरूप में परिणमित होता है। इनमें जो साधकरूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय। आत्मा अनादिकाल से मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अचारित्र के वशीभूत हो स्वरूप से च्युत होकर संसरण करता है। वह जब व्यवहार-सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्र को सुनिश्चलरूप से ग्रहण करता है तब उसके पाकप्रकर्ष की परम्परा से क्रमश: स्वरूप में आरूढ़ होता है और अन्तर्मग्न ( स्वात्माश्रित ) निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की विशेषता से साधक-रूप में परिणमित होता है। तथा जब स्वात्माश्रित रत्नत्रय परमप्रकर्ष पर पहुँचता है तब समस्त कर्मों का क्षय कर निर्मल परमात्मस्वभाव की प्राप्ति द्वारा स्वयं सिद्धरूप में परिणमित होता है। इस प्रकार एक ही ज्ञान उपाय और उपेय भावों को साधता है।"
उक्त आशय को व्यक्त करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र के शब्द इस प्रकार
“आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव। तस्यैकस्यापि स्वयंसाधकसिद्धोभयपरिणामित्वात्। तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः। यत्सिद्धं रूपं स उपेयः। अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानाचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात्संसरत: सुनिश्चलपरिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरम्परया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्तर्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढरत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति।"
आचार्यद्वय अमृतचन्द्र एवं जयसेन ने मौलिकअभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का आश्रय लेकर स्वयं के साथ ही आत्मा के मोक्षविषयक साध्य-साधक भाव को अभेदषट्कारक के रूप में इस प्रकार प्रतिपादित किया है -
“आत्मा स्वतन्त्ररूप से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप में परिणमन करता है, अतः स्वयं कर्ता होता है। स्वयं सिद्धपर्यायरूप परिणाम को प्राप्त होता है, अत: स्वयं कर्म बनता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से साधक बनकर सिद्धपर्याय को साधता है, इसलिए स्वयं करण का रूप धारण करता है। उपलब्ध सिद्धपर्याय स्वयं को प्रदान कर स्वयं को सन्तुष्ट करता है, इस तरह स्वयं ही सम्प्रदान में परिणत
१. समयसार/स्याद्वादाधिकार/पृ० ५३१
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