Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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९८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
जीव अपने साथ परद्रव्य के संयोग और वियोग की इच्छा ( उपयोग ) तथा तदनुकूल शारीरिक व्यापार को प्रेरित करनेवाली आत्मप्रदेश - परिस्पन्दरूप चेष्टा ( योग ) करता है, जिससे उसके साथ परद्रव्य का संयोग-वियोग होता है। इस तरह जीव अपने साथ परद्रव्य के संयोग-वियोग का प्रयोजक है, अर्थात् परद्रव्य संयोग-वियोग जीव के अधीन है। प्रयोजकत्व का यह भाव ग्राहक - त्याजक शब्दों के अर्थ में गर्भित है। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने इस भाव की प्रतीति कराने के लिए जीव में परद्रव्यग्राहक एवं परद्रव्यत्याजक संज्ञाओं का उपचार किया है। इस तरह के उपचार द्वारा सर्वज्ञ ने जो उपदेश दिया है उसे आचार्य कुन्दकुन्द ने इन शब्दों में निबद्ध किया है “ नग्न मुद्रा के धारक मुनि तिलतुषमात्र भी परिग्रह हाथों में ग्रहण नहीं करते । यदि थोड़ा-बहुत ग्रहण करते हैं तो निगोद में जाते हैं ।" "
" मुनि को केवल वही अल्पपरिग्रह ग्रहण करना चाहिए जो हिंसादि का कारण न हो, मूर्च्छा का जनक न हो तथा जिसकी असंयमी मनुष्य आकांक्षा न करते हों। " "
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“भावों को शुद्ध करने के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, किन्तु जो रागादिरूप आभ्यन्तर परिग्रह से युक्त है उसका बाह्य त्याग निष्फल है। "३ श्री उमास्वामी ने भी 'अदत्तादानं स्तेयम्' तथा 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् " सूत्रों में इसी प्रकार के उपचारात्मक उपदेशों को निबद्ध किया है।
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इन प्रयोजकत्व - द्योतक ग्राहक - त्याजक संज्ञाओं का उपचार इसलिए आवश्यक है कि जीव निश्चयनय के उपदेश को एकान्ततः ग्रहणकर अपने को परद्रव्य का सर्वथा अग्राहक और अत्याजक न समझ ले, क्योंकि ऐसा होने पर बाह्य परिग्रह रखते हुए भी अपने को परिग्रही नहीं मानेगा। तब परिग्रहपरिमाण अणुव्रत और बाह्यग्रन्थत्यागरूप अपरिग्रह महाव्रत भी असत्य हो जायेंगे । वस्त्रधारण करने पर भी वीतराग मुनि कहला सकेगा। आदान-निक्षेपण समिति भी सम्भव न होगी । अदत्तादानरूप चोरी एवं चतुर्विधदानरूप धर्म भी असम्भव होंगे। इस प्रकार बन्ध १. जह जायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं न गिहदि हत्थे ।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।। सुत्तपाहुड/गाथा १८ २. अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं ।
मुच्छादिजणणरहिदं गेहदु समणो जदि वि अप्पं । प्रवचनसार / गाथा ३ / २३ ३. भावविसुद्धिणिमित्तं वाहिरगंथस्स कीरए चाओ ।
वाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ।। भावपाहुड / गाथा ३
४. तत्त्वार्थसूत्र / सप्तम अध्याय / सूत्र १५
५. वही / सप्तम अध्याय / सूत्र ३८
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