Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / १०१
शुद्धोपयोग मुख्यत: निर्जरा है। उसके निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों का एकदेशक्षय होता है। ये दोनों मोक्ष के हेतु हैं और इस कारण उपादेय हैं, अत: दोनों में इस दृष्टि से साधर्म्य है। किन्तु मोक्षहेतुता एवं उपादेयता धर्म निर्जरा में ही प्रसिद्ध हैं, एकदेश कर्मक्षय में नहीं, इसलिए एकदेशकर्मक्षय में इन धर्मों की प्रतीति कराने हेतु एकदेशकर्मक्षय के लिए उपचार से 'निर्जरा' शब्द का प्रयोग किया गया है।
क्षायिक-ज्ञानदर्शनसहित यथाख्यातचारित्ररूप आत्मपरिणाम मुख्यत: मोक्ष नामक पदार्थ है। उसमें सम्पूर्ण कर्मों का नाशकर सिद्धत्व को आविर्भूत करने का
और इस कारण उपादेय होने का धर्म है। इस मोक्ष-तत्त्व के निमित्त से जो सम्पूर्ण पुद्गलकर्मों का क्षय होता है उसमें भी ये धर्म हैं। किन्तु ये मोक्ष-पदार्थ में ही प्रसिद्ध हैं, सम्पूर्ण कर्मक्षय में नहीं। इसलिए सम्पूर्ण कर्मक्षय में ये धर्म द्योतित करने के लिए सम्पूर्ण कर्मक्षय को उपचार से मोक्ष संज्ञा दी गई है। .
रागादि का अभाव मुख्यत: अहिंसा है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भी रागादि के अभाव के ही नाम हैं। ये अहिंसादि संसाराभाव के हेत हैं अतएव उपादेय हैं। रागादि के अभाव से अर्थात् अहिंसादि के सद्भाव से जीवघात, असत्यवचन, अदत्तादान, रतिक्रीडा, परद्रव्यग्रहण आदि का अभाव होता है। ये शुभप्रवृत्तियाँ भी संसाराभाव की परम्परया हेतु हैं, इसलिए उपादेय हैं। निष्कर्षत: अहिंसादि के सद्भाव तथा जीवघातादि से निवृत्ति में उपर्युक्त साधर्म्य हैं। किन्तु संसाराभावहेतुत्व तथा उपादेयत्व धर्म अहिंसादि में ही प्रसिद्ध हैं, जीवघातादि-निवृत्ति में नहीं। फलस्वरूप जीवघातादि से निवृत्ति में भी इन धर्मों को प्रसिद्ध करने के लिए जिनेन्द्रदेव ने जीवघातादि से निवृत्ति को उपचारत: अहिंसादि नामों से संकेतित किया है। अहिंसादि नामों से अभिहित होने पर साधर्म्य सम्बन्ध के द्वारा जीवघातादिनिवृत्ति में गर्भित उपर्युक्त धर्म अनायास बुद्धिगम्य हो जाते हैं।
सार यह कि औपचारिक शब्द-प्रयोग द्वारा अज्ञ शिष्यों को आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप का आभास कराया जाता है, जीव और शरीर के अभेदविशेष एवं परद्रव्य के साथ लौकिक सम्बन्धों की वास्तविकता दर्शाकर हिंसादि पापों, अहिंसादि धर्मों तथा बन्ध-मोक्ष की युक्तिमत्ता सिद्ध की जाती है, बन्ध और मोक्ष में जीव के स्वातन्त्र्य का प्रतिपादन किया जाता है, जीव के विषयभोक्तृत्व को युक्तिमत् सिद्धकर इन्द्रिय-संयमादि के उपदेश का औचित्य प्रतिपादित किया जाता है, जीव १. “निरवशेषकर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यन्ते स मोक्षः। विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणाम्।"
भगवती आराधना/विजयोदयाटीका/गाथा ३८
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