Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय । १०७
निवारक।' किन्तु अज्ञानियों का अनादिरूढ़ व्यवहार क्या परमार्थ का प्रतिपादक और अज्ञान का निवारक हो सकता है। नहीं, तब दोनों एक कैसे हो सकते हैं ?
(५) शरीर में 'जीव' संज्ञा के उपचार से शरीरघात होने पर जीवघातरूप हिंसा घटित होती है, उससे कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से मोक्ष का औचित्य सिद्ध होता है। इसलिए उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय पर आश्रित उपदेश को आचार्यों ने उचित बतलाया है', किन्तु अज्ञानमय व्यवहार का सर्वत्र निषेध ही किया गया है।
(६) यदि उपचारमूलक असद्भतव्यवहारनय अज्ञानमय व्यवहार हो तो संसार को सत्य मानना भी अज्ञान होगा, प्राणघातादि को हिंसा मानना भी अज्ञान होगा, मोक्ष को आवश्यक मानना भी अज्ञान होगा, क्योंकि इन सबकी सत्यता उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय से ही घटित होती है। श्री माइल्लधवल अत्यन्त सरल भाषा में व्यवहारनय ( उपचारमूलक ) की श्रुतज्ञानात्मकता एवं कथंचित् भूतार्थता का निरूपण करते हुए कहते हैं -
“जिनेन्द्रदेव ने सर्वत्र पर्यायरूप से व्यवहार को सत् कहा है। जो व्यवहार को सत् नहीं मानता उसके मत में संसार और मोक्ष कैसे सिद्ध होंगे ? यह चतुर्गत्यात्मक संसार है। उसके हेतु शुभ और अशुभ कर्म हैं। यदि ये मिथ्या हैं तो सांख्यमत के समान उसके मत में संसारावस्था कैसे उपपन्न होगी ? जिनेन्द्रदेव ने व्यवहारनय से एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर को जीव कहा है। यदि उनकी हिंसा में पाप है, तो सर्वत्र व्यवहार को सत्य क्यों नहीं मानते ?"३
इन यक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि उपचारमूलक असद्भतव्यवहारनय अज्ञानियों के अनादिरूढ़ व्यवहार से सर्वथा भिन्न है।
१. मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः ।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। पुरुषार्थसिद्धयुपाय/कारिका, ४ २. "तस्माद् व्यवहारनयव्याख्यानमुचितं भवतीत्यभिप्रायः।"
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, ४६ सव्वत्थ पज्जयादो संतो भणिओ जिणेहि ववहारो । जस्स ण हवेइ संतो हेऊ दोह्णपि तस्स कुदो ।। चउगइ इह संसारो तस्स य हेऊ सुहासुहं कम्मं । जइ ता मिच्छा किह सो संसारो संखमिव तस्स मए ।। एइंदियादि देहा जीवा ववहारदो य जिणदिट्ठा । हिंसादिसु जदि पापं सव्वत्थवि किण्ण ववहारो ।।
द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, गाथा २३४-२३६
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