Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१०० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
आत्मश्रद्धान मुख्यतः सम्यग्दर्शन है। वह विपरीतश्रद्धान का निवारक है, अत: मोक्ष के लिए उपादेय है। जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान उसका साधक है, इसलिए वह भी परम्परया विपरीत श्रद्धान का निवारक अतएव मोक्ष के लिए उपादेय है। जीवादिश्रद्धान का यह उपादेयतारूप धर्म सम्यग्दर्शन के उपादेयतारूप धर्म से समानता रखता है, किन्तु यह सम्यग्दर्शन में ही प्रसिद्ध है, जीवादिश्रद्धान में नहीं। अत: जीवादिश्रद्धान में उपादेयतारूपधर्म प्रद्योतित करने के लिए जिनेन्द्रदेव ने जीवादिश्रद्धान को उपचार से सम्यग्दर्शन कहा है। इसी प्रकार आत्मज्ञान मुख्यत: सम्यग्ज्ञान है। वह मिथ्याज्ञान का विनाशक है, इस कारण मोक्ष के लिए उपादेय है। जीवादि तत्त्वों का ज्ञान उसका साधक है। वह मिथ्याज्ञान का परम्परया विनाशक अतएव मोक्ष के लिए उपादेय है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान और जीवादि तत्त्वों के ज्ञान में उपादेयतारूप साधर्म्य है। किन्तु यह समानधर्म सम्यग्ज्ञान में ही प्रसिद्ध है जीवादि तत्त्वों के ज्ञान में नहीं। इसलिए जीवादितत्त्वज्ञान में उपादेयतारूपधर्म दर्शाने हेतु उसमें सम्यग्ज्ञान का उपचार किया गया है। तथा निजशुद्धात्मस्वरूप में स्थित होना मुख्यत: सम्यक्चारित्र है। वह मिथ्याचारित्र का निरोधक है, अतएव मोक्ष के लिए उपादेय है। शुभप्रवृत्ति उसकी साधक है। इसलिए वह भी मिथ्याचारित्र की परम्परया निरोधक होने से प्राथमिक भूमिका में मोक्ष के लिए उपादेय है। इस तरह शुभप्रवृत्ति का सम्यक्चारित्र से उपादेयतारूप साधर्म्य है। किन्तु चूँकि यह समानधर्म सम्यक्चारित्र में ही प्रसिद्ध है, शुभप्रवृत्ति में नहीं; इसलिए इसे शुभप्रवृत्ति में परिलक्षित करने के लिए अरहन्तदेव ने शुभप्रवृत्ति को उपचार से सम्यक्चारित्र संज्ञा दी है।
रागद्वेषमोह मुख्यत: आस्रव-बन्ध हैं। वे संसार और दुःख के कारण हैं, इसलिए हेय हैं। उनके निमित्त से कर्मपुद्गलों का आत्मा में आगमन और संश्लेष होता है। वह भी संसार और दुःख का हेतु है, अत: हेय है। इस तरह इनमें भी साधर्म्य है। किन्तु ये दुःखहेतुत्व एवं हेयत्व धर्म आस्रवबन्ध में ही प्रसिद्ध हैं, कर्मपुद्गलों के आगमन और संश्लेष में नहीं। इसलिए कर्मपुद्गलों के आगमन और संश्लेष में इन धर्मों की प्रतीति करने के लिए कर्मपुद्गलों के आगमन और संश्लेष को उपचार से आस्रव-बन्ध नाम दिये गये हैं।
रागद्वेषमोह का अभाव मुख्यत: संवर है। उसमें जीव को मोक्ष प्राप्त कराने का धर्म है, इसलिए उपादेय होने का भी धर्म है। रागद्वेषमोहाभाव के निमित्त से नवीन कर्मों के आगमन का निरोध होता है। अत: उसमें भी इन धर्मों का अस्तित्व है। किन्तु ये मोक्षहेतुत्व एवं उपादेयत्व धर्म संवर में ही प्रसिद्ध हैं, नवीन कर्मों के निरोध में नहीं। इसलिए नवीन कर्मों के निरोध में इन धर्मों का अस्तित्व द्योतित करने के लिए नवीन कर्मों के निरोध को उपचार से संवर कहा गया है। .
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