Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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९६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं वा दुक्खं वा । तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ।। '
- परद्रव्य का उपभोग करने से जीव को नियम से सुख-दुःख की अनुभूति होती है, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव सुख-दुःख में राग-द्वेष नहीं करता, अपितु उन्हें अरतिपूर्वक भोगता है, इसलिए वह निर्जरा का निमित्त बन जाता है ।
यदि जीव को उपचार से विषयों का भोक्ता न कहा जाय तो परमार्थतः विषयों का भोक्ता न होने से विषयाश्रित सुख - दुःख का भोक्ता भी सिद्ध न होगा । जब किसी भी नय से जीव के साथ विषयों का सम्पर्क घटित नहीं हो सकता तब विषयसम्पर्क के अभाव में जीव की सुखदुःखात्मक परिणति कैसे घटित हो सकती है ? हाँ, यदि वह उपचार से विषयों का भोक्ता सिद्ध हो तो ( अशुद्ध ) निश्चयनय से विषयाश्रित सुख - दुःख का भोक्ता सिद्ध हो सकता है। किसी भी नय से जीव का विषयभोक्तृत्व उपपन्न न होने पर शरीर ही विषयों का भोग करनेवाला ठहरेगा। इस स्थिति में प्रयत्नपूर्वक विषयसामग्री जुटाते हुए तथा उसका इन्द्रियों से संयोग कराते हुए और तन्निमित्तक सुख-दुःख भोगते हुए भी जीव विषयभोग करनेवाला सिद्ध नहीं होगा। इससे कर्मबन्ध भी घटित नहीं होगा, जिससे विषयभोग करते हुए भी मोक्ष होने का प्रसंग आयेगा ।
उपचार से ( जीव और शरीर में कथंचित् अभेद होने की अपेक्षा ) भी जीव को विषयों का भोक्ता न मानने के कारण कुछ लोग प्रतिपादित करते हैं कि विषय-भोग तो जड़ शरीर की क्रिया है, आत्मा की नहीं और इस विपरीत श्रद्धान से वे स्वच्छन्द होकर विषय-भोग करते हैं और अपने को कर्मबन्ध का अभाव मानते हैं । किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जिनेन्द्रदेव ने जीव और शरीर में सर्वथा भेद मानने को एकान्त मिथ्यात्व कहा है और कथंचित् अभेद के श्रद्धान का उपदेश दिया है। अतः कथंचित् अभेद का श्रद्धान होने पर विषयभोग जड़शरीर की क्रिया नहीं, अपितु सजीव शरीर अथवा सशरीर जीव की क्रिया सिद्ध होता है। वैसे भी निर्जीव शरीर विषयभोग करने में समर्थ नहीं है।
उपचार से जीव को विषयों का भोक्ता कहना मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहने के समान सर्वथा असत्य वचन नहीं है, अपितु यह कथन जीव और शरीर के कथंचित् अभेद की सत्यता पर आश्रित है, अतः सत्यवचन है । अन्तर केवल यह है कि यह पारमार्थिक सत्य नहीं है, अपितु व्यावहारिक सत्य है । इस सत्य की अनेकान्त - सिद्धान्त में कितनी मान्यता है यह इस बात से स्पष्ट हो जाता
१. समयसार /गाथा १९४
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