Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहमा वादरा य जे चेव ।
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ।।'
-सूत्र ( आगम ) में जो पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रियादि शरीरों को 'जीव' संज्ञा दी गई है वह व्यवहारनय ( उपचारावलम्बी व्यवहारनय ) से दी गयी है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि शरीर को प्रयोजनवश उपचार से जीव कहा गया है, वास्तव में जीव नहीं है। निष्कर्षतः एकमात्र चैतन्यभाव ही वास्तविक जीव सिद्ध होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने यह भी स्पष्ट किया है कि सूत्र में उपचारावलम्बी व्यवहारनय का अनुसरण करते हुए रागादिभावों को भी प्रयोजनवश 'जीव' शब्द से अभिहित किया गया है -
एवमेव च ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं ।
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेको णिच्छिदो जीवो ।।
-( जैसे लोक में राजा की सेना के लिए राजा शब्द का व्यवहार किया जाता है) वैसे ही सूत्र में अध्यवसानादि ( रागादि ) भावों के लिए जीव शब्द का व्यवहार ( उपचार ) किया गया है।
इससे यह तथ्य सामने आ जाता है कि रागादिभावों को प्रयोजनवश उपचार से जीव कहा गया है, वे यथार्थत: जीव नहीं हैं।
इस प्रकार नियतस्वलणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि एकमात्र चैतन्यभाव को परमार्थ आत्मा के रूप में प्रकट करती है और शरीरादि को जीव संज्ञा दिये जाने का रहस्य उद्घाटित कर उन्हें वास्तविक जीव मानने की भूल से बचाती है।
शुद्धोपयोग की 'मोक्षमार्ग' संज्ञा स्वात्माश्रित सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप शुद्धोपयोग मोक्षमार्ग का नियतस्वलक्षण है, क्योंकि उसके होने पर नियम से मोक्ष होता है, न होने पर नहीं होता। १. समयसार/गाथा, ६७ २. वही/गाथा, ४८ ३. राया हु णिग्गदो त्तिय एसो बलसमुदायस्स आदेसो ।
ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया ।। वही/गाथा, ४७ ४. (क) “निश्चयमोक्षमार्गस्थितानां नियमेन मोक्षोभवति।"
वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, २७६-२७७ (ख) “आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्।"
वही/आत्मख्याति/गाथा २७२
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