Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय / ५५
स्वशुद्धात्मा के चिन्तन ( अनुभूति ) में लीन होना' नियतस्वलक्षण की अपेक्षा अनुप्रेक्षा है। तत्साधक होने से शरीरादि के अनित्यत्वादि स्वभाव का जो बार-बार चिन्तन किया जाता है, उसे उपचार से अनुप्रेक्षा नाम दिया गया है।
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निजशुद्धात्मस्वरूप की अनुभूति से विचलित न होना नियतस्वलक्षण की दृष्टि से परीषहजय है। इसकी सिद्धि में सहायक होने से जो क्षुधादि की पीड़ा को समभाव से सहा जाता है, उसे उपचार से परीषहजय कहा गया है।
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निर्विकार निश्चल चित्तवृत्ति' अथवा शुद्धोपयोग निश्चयरत्नत्रय का लक्षण है। तत्परिणत निजात्मा का स्वरूप स्वशुद्धात्मस्वरूप कहलाता है । उसमें चरण करने ( स्थित रहने ) से शुभाशुभ कर्मों का उन्मूलन होता है। अतः स्वशुद्धात्मस्वरूप में चरण नियतस्वलक्षण की अपेक्षा चारित्र है। इसकी उपलब्धि में सहायक होने अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में प्रवृत्ति को उपचार से चारित्र संज्ञा दी गई है। * स्वयं को अपने शुद्धस्वरूप में संयमित ( स्थित ) करना नियतस्वलक्षण की दृष्टि से संयम है । तत्साधक होने से षट्कायिक जीवों के वध तथा इन्द्रियविषयों के सेवन से निवृत्त होने को उपचार से संयम कहा गया है । "
अपने वीतरागज्ञानदर्शन सुखस्वभाव में तपना ( स्थित होना ) नियतस्व - लक्षण की अपेक्षा तप है। उसमें साधक होने के कारण अनशनादि बाह्य तपों के लिए उपचार से तप संज्ञा का व्यवहार किया गया है।
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स्वशुद्धात्मा में शोभन अध्याय या अभ्यास ( सम्यक् प्रवृत्ति ) की नियत - स्वलक्षण से स्वध्याय संज्ञा है। इसकी सिद्धि में सहायक होने से जिनेन्द्रप्रणीत
१. " समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीन - तच्चिन्तन- तन्मयत्वेन ।'
बृहद्द्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका / गाथा, ३५ २. “निर्विकारनिश्चलचित्तवृत्तिरूपचारित्रस्य ।” प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति, १ / ७ ३. “शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयपरिणते स्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम्।” .वही / ब्रह्मदेवटीका/ गाथा, ३५
४. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारितं ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं ।। वही / गाथा, ४५ “सकलषड्जीवनिकायनिशुम्भनविकल्पात् पञ्चेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावर्त्यात्मनः शुद्धस्वरूपे संयमनात् । " प्रवचनसार / तत्त्वदीपिका, १/१४
६. “समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशनादिद्वादशतपश्चरणबहिरङ्गसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणम् । ”
बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका / गाथा, ५२
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