Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
की ही प्राप्ति होती है। किन्तु जो साधु केवल स्व-विषय में प्रवृत्त होने वाले अशुद्धद्रव्यनिरूपक व्यवहारनय का विरोध नहीं करता, अपितु मध्यस्थ होकर शुद्ध द्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय के आश्रय से मोह को दूर करता है उसे इस सत्य की अनुभूति हो जाती है कि न तो किसी परद्रव्य से मेरा सम्बन्ध है, न किसी परद्रव्य का मुझसे। मैं शुद्धज्ञानात्मक एक अकेला तत्त्व हूँ। इस अनुभूति से वह परद्रव्यरूप अनात्मा को छोड़कर आत्मा को ही आत्मा के रूप में ग्रहणकर, आत्मा में ही ध्यान केन्द्रित करता है। उस एकाग्रचिन्तानिरोध के समय वह शुद्धात्मा ही रह जाता है। अत: निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है।"
समयसारकलश में उन्होंने कहा है – “अनादिकाल से ही अज्ञानी जीवों की यह महामिथ्या धारणा बनी हुई है कि 'मैं परद्रव्य का कर्ता हूँ।' यदि निश्चयनय के ग्रहण से यह एक बार भी नष्ट हो जाय तो फिर जीव कभी बन्धनग्रस्त नहीं हो सकता।"
निश्चयनय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसार की व्याख्या में कहते हैं -
"जो जीव यह मिथ्या मान्यता रखते हैं कि मैं श्रमण ( मुनि ) हूँ अथवा श्रमणोपासक ( श्रावक ) हूँ, इन्हीं बाह्य लिंगों से मुझे मोक्ष प्राप्त हो जायेगा, वे व्यवहाराभासी हैं। वे विवेक से परिपूर्ण निश्चयनय का अवलम्बन न करने के कारण परमार्थसत्य भगवान् समयसार के दर्शन में समर्थ नहीं होते।
"मुनिधर्म और श्रावकधर्म को व्यवहारनय से मोक्षमार्ग नाम दिया गया है, १. “यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक___ व्यवहारनयोपजनितमोहः सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणादौ परद्रव्ये
ममत्वं न जहाति "।" प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/९८ २. “यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ:
शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयापहस्तितमोहः सन् नाहं परेषामस्मि न परे मे सन्तीति स्वपरयोः परस्परस्वस्वामिसम्बन्धमुद्भूय "।" वही, २/९९ आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपो तमः । तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं ब्रजेत्
तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ।। समयसार/कलश, ५५ ४. “ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिङ्गममकारेण मिथ्याहङ्कारं कुर्वन्ति
तेऽनादिरूढव्यवहारविमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति।" वही/आत्मख्याति/गाथा, ४१३
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