Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय । ९१
कारण शरीर के घात से जीवघातरूप हिंसा का पाप सम्भव होता है, उसका बोध कराने के प्रयोजन से जिनेन्द्र भगवान् ने शरीर को जीव शब्द से अभिहित किया है। यदि इस विलक्षण अभेद का बोध न कराया जाय और स्वभावगत भिन्नता ही दर्शायी जाय तो शरीर के घात से जीवघातरूप हिंसा घटित नहीं होगी। फलस्वरूप कर्मबन्ध भी घटित नहीं होगा। तब लोग निःशंक होकर प्राणियों का वध करेंगे
और कर्मबन्ध करते रहेंगे, कभी मुक्त न हो पायेंगे।' इस कारण जिनेन्द्रदेव ने प्रयोजनवश ही शरीर में जीव शब्द का उपचार किया है।
सार यह कि जिन वस्तुओं में परस्पर संश्लेष, संयोग, साहचर्य, सामीप्य, आधाराधेय, निमित्तनैमित्तिक, कारण-कार्य आदि सम्बन्ध होते हैं उन्हीं में से एक को दूसरे के नाम से अभिहित किया जाता है और ऐसा किसी प्रयोजन से ही किया जाता है, बिना प्रयोजन के नहीं। बिना प्रयोजन के ऐसा करने पर अज्ञानमय व्यवहार कहलाता है।
उपचार कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, अपितु लोकप्रसिद्ध कथनशैली है।' वक्ता उपयुक्त अर्थ में ही उपचार का प्रयोग करता है और श्रोता भी उससे उपयुक्त अर्थ ही ग्रहण करता है। जब कोई वक्ता कहता है कि 'यह लड़का गधा है' तो वह 'गधा' शब्द का प्रयोग 'गधा' नामक पशु के अर्थ में नहीं करता, बल्कि 'अत्यन्त मूर्ख' के अर्थ में करता है तथा श्रोता भी उससे मूर्ख अर्थ ही ग्रहण करता है, 'गधा' अर्थ नहीं। इसलिए यह प्रामाणिक कथनशैली है। इसीलिए जिनेन्द्रदेव ने वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए इसका अनुसरण किया है। यद्यपि लौकिक जन लोकप्रचलित उपचारकथन के उपयुक्त अर्थ को तो अनायास ग्रहण कर लेते हैं, किन्त आगम में प्रयुक्त उपचार-वचनों के उपयुक्त अर्थ को सरलतया ग्रहण कर पाना सम्भव नहीं है। इसलिए जिनेन्द्र भगवान् ने आगमवचनों के हार्द को समझने के लिए सर्वप्रथम नयों के अभिप्राय को हृदयंगम कर लेना आवश्यक बतलाया है। कौन
१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६ २. “सोऽपि सम्बन्धोऽविनाभावः, संश्लेष: सम्बन्धः, परिणामपरिणामिसम्बन्धः, श्रद्धाश्रद्धेयसम्बन्धः, ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः .... ..." इत्युपचरितासद्भूतव्यवहानयस्यार्थः।"
आलापपद्धति/सूत्र २१३ ३. “नेयमदृष्टकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति सुप्रसिद्धस्योपलम्भात्।"
धवला पुस्तक १, सूत्र ४, पृ० १३५ ४. "जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति।
यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि, सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसङ्गः।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३५६-३६५
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