Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
दृष्टि में नहीं आता, दूसरे, जीव ने उसे जानने के लिये कभी आत्मज्ञानियों की संगति नहीं की।
तात्पर्य यह कि अनादिमोह से ग्रस्त होने के कारण जीव अपने शुद्ध चैतन्यभावरूप मौलिक स्वरूप से अपरिचित होता है। आत्मा अतीन्द्रिय तत्त्व है, इन्द्रियों से दिखाई नहीं देता। संसारावस्था में देह और रागादि के साथ वह इस प्रकार घुला-मिला रहता है जैसे दूध और पानी। इसलिए शरीर और रागादि से पृथक् तत्त्व के रूप में उसका बोध नहीं होता। जीव को शरीर ही चलता-फिरता, खाता-पीता, राग-द्वेष करता, सुख-दु:ख भोगता तथा जीता-मरता दिखाई देता है, अत: वह उसे ही आत्मा समझता है, अर्थात् चेतना को शरीर का ही धर्म मानता है और चेतना का शरीर से पृथक् अस्तित्व-बोध न होने के कारण शरीर में ही अपना अस्तित्व समझता है। इसलिए शरीर के उत्पन्न होने से अपनी उत्पत्ति मानता है और शरीर के नष्ट होने से अपना नाश। कुछ लोग मानते हैं कि रागादिभावों से अलग चेतना की प्रतीति नहीं होती, अत: रागादिभाव ही आत्मा हैं। कुछ का मत है कि सुख-दुःखादि के अनुभव से भिन्न कोई चेतन-तत्त्व ज्ञान में नहीं आता, इसलिए सुख-दुःखानुभूति ही आत्मा है।'
__इतना ही नहीं, जीव के साथ संसारावस्था में जिन शरीर, परिवार, धनधान्य आदि पदार्थों का संयोग होता है उनके साथ वह अपना शाश्वत सम्बन्ध मानता है, अर्थात् अपने को अकेला नहीं मानता, अपितु संसार के कुछ पदार्थों से सम्बद्ध मानता है, किसी के साथ अपने को पिता के रूप में सम्बद्ध मानता है, किसी के साथ पुत्र के रूप में, किसी के साथ पति के रूप में, किसी के साथ पत्नी के रूप में। इसी प्रकार धन-धान्य से भी अपने को सम्बद्ध मानता है।"
जीव के योग और उपयोग के निमित्त से पुद्गलद्रव्य कर्मरूप में बदल जाता है तथा मिट्टी आदि द्रव्य घट आदि पर्यायों में परिणत हो जाते हैं, इससे वह समझता है कि मैं पुदगलकर्मों तथा घटादि परद्रव्यों का कर्ता हूँ।" उसके योगोपयोग के निमित्त से पुद्गल की कर्म एवं घट आदि पर्यायें नष्ट भी हो जाती हैं। यह देखकर वह मानता है कि मैं परद्रव्य का विनाशक हूँ। इसी प्रकार दयाभाव एवं यत्नाचार के निमित्त से परजीवों के शरीर का घात नहीं हो पाता तथा
१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ४ २. "मोह महामद पियो अनादि भूल आपको भरमत वादि।" छहढाला, १/२ ३. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ३९-४३ ४. वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, २०-२२ ५. वही/आत्मख्याति/गाथा, १०५ ।
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