Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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असद्भूतव्यवहारनय । ८७
है। जीव के श्रद्धा और चारित्र गुणों को विपरीत बनाने वाले कर्म का नाम मोहनीय है। जीव के साथ दु:खोपशामक सामग्री का संयोग कराना सातावेदनीय का लक्षण है और दु:खोत्पादक सामग्री का सान्निध्य प्राप्त कराना असातावेदनीय का। इन समस्त द्रव्यों और कर्मों के लक्षण तभी उपपन्न होते हैं जब परद्रव्यसम्बन्धदर्शक असद्भूतव्यवहारनय से व्याख्यान किया जाय।
इन प्रयोजनों का साधक होने से असद्भतव्यवहारनयात्मक उपदेश सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और मोक्ष की सिद्धि में कितना महत्त्व रखता है, यह उपर्युक्त समीक्षा से भलीभाँति हृदयंगम हो जाता है।
__ अभूतार्थता का अभिप्राय आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा है – “ववहारोऽभूयत्थो।”९ व्यवहारनय में असद्भूतव्यवहारनय भी गर्भित है और असद्भूतव्यवहारनय में सोपाधिक पदार्थ तथा परद्रव्यसम्बन्ध जैसे वास्तविक विषयों का अवलम्बन करने वाला असद्भूतव्यवहारनयं भी शामिल है। यहाँ विचारणीय है कि इस नय के सन्दर्भ में अभूतार्थता का क्या अभिप्राय है ? अभूतार्थ का शाब्दिक अर्थ है ऐसा पदार्थ जो स्वाभाविक या मौलिक नहीं है, जो परद्रव्यसंयोग से निष्पन्न है या जिसमें परद्रव्यसम्बन्ध दिखाई देता है, अथवा जिसमें गुणपर्यायरूप भेद दृष्टिगोचर होता है, या जिसके लिए किसी अन्य का नाम दिया गया है।
यहाँ विचार करने पर स्पष्ट होता है कि यद्यपि सोपाधिक पदार्थ तथा परद्रव्यसम्बन्ध वास्तविक हैं, इनका अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का निर्णय करने के कारण इस असद्भूतव्यवहारनय का निर्णय असत्य नहीं है, तथापि इसके द्वारा मूलपदार्थ, मूलस्वभाव और मौलिकभेद का प्रकाशन नहीं होता, जो भूतार्थ का स्वरूप है, इसलिए भूतार्थ का प्रकाशक न होने से अभूतार्थ है। किन्तु केवल इसी अपेक्षा से अभूतार्थ है। आत्मा की सोपाधिक अवस्था वास्तविक है, परद्रव्य से आत्मा के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध वास्तविक हैं। अत: इनका प्रकाशक होने की अपेक्षा भूतार्थ है।
१. समयसार/गाथा ११
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