Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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परद्रव्य के साथ ज्ञेय-ज्ञायकसम्बन्ध का निश्चय
परद्रव्यों के साथ आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है। निम्नलिखित आर्षवचनों से इस सम्बन्ध की वास्तविकता का बोध होता है।
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असद्भूतव्यवहारनय / ८१
,,१
"अहं हि तावज्ज्ञायक एव स्वभावेन । केवलज्ञायकस्य च सतो मम विश्वेनापि सहजज्ञेयज्ञायकलक्षण एव सम्बन्धः न पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादयः सम्बन्धाः - मैं तो स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ। केवल ज्ञायक होने के कारण विश्व के साथ भी मेरा सहज ज्ञेय-ज्ञायकसम्बन्ध ही है, स्व-स्वामी आदि अन्य सम्बन्ध नहीं ।
"ज्ञेयज्ञायकलक्षणसम्बन्धस्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वाद्
रूप्यमपि ...।"२
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- यद्यपि ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध अनिवार्य होने के कारण आत्मा में समस्त विश्व प्रतिबिम्बित होता है, इसलिए आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है ( तथापि अपनी ज्ञायकस्वभावरूप एकरूपता को नहीं छोड़ता ) |
चूँकि परद्रव्य के साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध बाह्यसम्बन्ध है, इसलिए इसका प्रकाशन बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ( परद्रव्यसम्बन्धमूलक असद्भूतव्यवहारनय ) से होता है। मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखने पर परद्रव्य से असम्बन्ध का ही ज्ञान होता है, सम्बन्ध का नहीं। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवलीभगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।
- केवली भगवान् समस्त पदार्थों को व्यवहारनय से जानते देखते हैं और निश्चयनय से केवल स्वयं को जानते हैं।
१. प्रवचनसार / तत्त्वदीपिका २/१०८
२ . वही
उपात्तवैश्व
परद्रव्य के साथ साध्यसाधकसम्बन्ध का निश्चय
जीवादि परद्रव्यों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन का साधक है। परमार्थ देव, शास्त्र, और गुरु का श्रद्धान भी सम्यग्दर्शन का साधक है। जिनबिम्बदर्शन सम्यक्त्व का हेतु है। मोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय सम्यक्त्व का हेतु है, ज्ञाना
"
३. "उपचरितासद्भूतव्यवहारे लोकालोकावलोकनं स्वसंवेद्यं प्रतिभाति । '
४. नियमसार / गाथा १५९
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परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका १/५
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