Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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८४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
___सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद् भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम्। व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद् अपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद् भवत्येव बन्धस्याभावः। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावाद् भवत्येव मोक्षस्याभावः।"
-ये सभी अध्यवसानादि भाव ( शरीरादि एवं रागादि ) जीव हैं - ऐसा उपदेश सर्वज्ञ भगवान् ने इसलिए दिया है कि अभूतार्थ व्यवहारनय से घटित होने वाला आत्मा का संसारी रूप भी लोगों की दृष्टि में आ जाय, क्योंकि जैसे म्लेच्छभाषा म्लेच्छों को वास्तविक अर्थ का बोध कराने का साधन है वैसे ही व्यवहानय अपरमार्थ होते हुए भी व्यवहारियों ( प्राथमिक भूमिका में स्थित साधकों ) को परमार्थ का अवबोधक है। अतएव उन्हें मोक्षमार्ग में लगाने हेतु व्यवहारनय के पक्ष को दर्शाना न्यायोचित है।
यदि व्यवहारनय का आश्रय लेकर आत्मा की संसारपर्याय दृष्टि में न लायी जाय तो एकमात्र निश्चयनय पर आश्रित उपदेश से जीव और शरीर की मौलिक ( स्वभावगत ) भिन्नता ही दृष्टि में आयेगी, जिससे त्रस और स्थावर जीवों को नि:शंक होकर ( प्रमत्तयोगपूर्वक ) कुचलने-मसलने में भस्म को कुचलने-मसलने के समान हिंसा के अभाव का प्रसंग आयेगा और उससे बन्ध का अभाव सिद्ध होगा। इसी प्रकार आगम में कहा गया है कि जीव रागद्वेषमोहरूप से परिणमित होकर कर्मों से बँधता है, अत: उसे मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। किन्तु, यदि केवल निश्चयनयसम्मत उपदेश देकर जीव को रागद्वेषमोह से सर्वथा पृथक् दर्शाया जाय तो ( बद्ध सिद्ध न होने से ) मोक्ष के उपाय का अवलम्बन औचित्यपूर्ण सिद्ध न होगा, जिससे मोक्षप्राप्ति असम्भव हो जायेगी। - आचार्य अमितगति ने भी कहा है -
आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं तेषां सञ्जायते हिंसा ।।
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं ।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ।। समयसार/गाथा ४६ १. वही/आत्मख्याति/गाथा - ४६ २. अमितगतिश्रावकाचार ६/२१
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