Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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असद्भूतव्यवहारनय / ७३
- अर्थात् ये वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भाव व्यवहारनय से जीव के हैं, निश्चयनय से नहीं ।
यतः उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय से ही जीव के साथ इनका सम्बन्ध सिद्ध होता है, अतः श्री माइल्लधवल ने इन्हें स्पष्टत: असद्भूत एवं उपचारित कहा है
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उवसमखयमिस्साणं तिह्नं एक्कोवि ण हु असब्भूओ ।
णो वत्तव्वं एवं सो वि गुणो जेण उवयरिओ ।।
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- औपशमिक, क्षायिक और मिश्र ( क्षायोपशमिक ) इन तीनों में से कोई भी भाव आत्मा में असद्भूत ( स्वभावत: असत् ) नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ये सब भी उपचरित ( उपाधिमूलक ) हैं।
बाह्यसम्बन्धमूलक असद्भूतव्यवहारनय ( बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि )
परद्रव्य के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे बाह्य सम्बन्ध कहते हैं । परद्रव्यों के साथ जीव के विविध बाह्य सम्बन्ध होते हैं, जैसे संश्लेषसम्बन्ध, संयोगसम्बन्ध, निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध, ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध, साध्यसाधकसम्बन्ध, आधाराधेयसम्बन्ध इत्यादि। इन सम्बन्धों का निश्चय' बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी दृष्टि या बाह्यसम्बन्धमूलक असद्भूतव्यवहारनय से देखने पर होता है। यहाँ उन सम्बन्धों पर दृष्टिपात किया जा रहा है।
जीव और पुद्गल के संश्लेषसम्बन्ध का निश्चय
अनादि से जीव और पुद्गल का नीर-क्षीर के समान एक क्षेत्रावगाह - सम्बन्ध है, इसे संश्लेषसम्बन्ध कहते हैं। शरीर और कर्मरूप पुद्गल के संश्लेष से ही जीव की केवलज्ञानादि शक्तियाँ तिरोहित हैं और वह देह - कारागार में बन्दी होकर नाना प्रकार के दुःख भोगता है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त वर्णादि-गुणस्थानपर्यन्त भावों में जो वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, कर्म, नोकर्म इत्यादि पुद्गल के परिणाम हैं, उनके साथ जीव का दूध और पानी के समान
१. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र / गाथा, २९२
२. यहाँ 'निश्चय' शब्द 'निर्णय' का पर्यायवाची है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इस अर्थ में इसका प्रयोग किया है ' एवं ववहारस्सदु विणिच्छओ णाणदंसणचारित्ते । ' समयसार / गाथा, ३६५
३. " आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मक्लेशसङ्कोचितात्मशक्तिः ।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा २९
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