Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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७० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
कर्मरूप में परिणमित होता है, अत: जीवरूप उपाधि से युक्त पुद्गलद्रव्य सोपाधिक पुद्गल है।
पुद्गलकर्मरूप उपाधि के निमित्त से जीव में चार प्रकार के भावों की उत्पत्ति होती है : औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक। ये अशुद्ध और शुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं। पुद्गलकर्मरूप उपाधि का जब उदय होता है तब मोहरागादि अशुद्ध भावों की उत्पत्ति होती है, जब उपशम, क्षयोपशम तथा घातिकर्मों का क्षय होता है तब एकदेशशुद्ध भावों की और जब समस्त पुद्गलकर्मों का क्षय होता है तब पूर्णशुद्ध भावों की उत्पत्ति होती है। किन्तु, ये शुद्ध होते हुए भी उपाधिहेतुक होने से स्वाभाविक नहीं हैं, औपाधिक हैं, इसलिए शुद्धचैतन्यरूप पारिणामिकभाव के समान स्वभावभाव न होकर विभावभाव हैं, परमभाव न होकर अपरमभाव हैं, स्वभाव न कंहलाकर परभाव कहलाते हैं।
मोहनीय आदि कर्मों के उदय से जीव के मिथ्यात्व, कषाय, अज्ञान और असंयमरूप परिणाम होते हैं, सिद्धत्व तिरोहित हो जाता है, वह मनुष्य, देव, तिर्यंच
और नारक पर्यायों में संसरण करता है, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये तीन लिंग धारण करता है तथा छह लेश्याओं की अवस्था को प्राप्त होता है। इसलिए जीव की ये अशुद्ध अवस्थाएँ औपाधिक हैं, स्वाभाविक नहीं। इस कारण इनका बोध सोपाधिक पदार्थ का अवलम्बन करनेवाली दृष्टि से देखने पर होता है। अत: जीव के साथ इनका सम्बन्ध उपाधिमूलक असद्भतव्यहारनय से घटित होता है। इसी नय के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ने राग, द्वेष, मोह को जीव का स्वकीय परिणाम कहा है, 'रागो दोसो मोहो जीवस्सेव अणण्णपरिणामा' तथा आचार्य जयसेन ने जीव को अशुद्धोपादानरूप से ( जो कर्मोपाधिहेतुक है ) रागादि भावों का कर्ता कहा है -
१. “तत्रोदयेन युक्त औदयिकः। उपशमेन युक्त औपशमिकः। क्षयोपशमेन युक्तः
क्षायोपशमिकः। क्षयेण युक्तः क्षायिकः। परिणामेन युक्तः पारिणामिकः। त एते पञ्च जीवगुणाः। तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबन्धनाश्चत्वारः। स्वभावनिबन्धन एक.।"
पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा, ५६ २. “सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा।"
बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा, १४ ३. "औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानाम्।"
नियमसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १३ एवं ११० ४. समयसार/गाथा, ३७१ ५. “कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वाद् अशुद्धः, तत्काले तप्ताय:पिण्डवत् तन्मयात्वाच्च निश्चयः,
इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयोभण्यते।" बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा, ८
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