Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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तृतीय अध्याय
असद्भूतव्यवहारनय .. पूर्व में प्रतिपादित किया गया है कि ज्ञाता की जो दृष्टि सोपाधिक ( परद्रव्यसंयुक्त) पदार्थ, औपाधिकभाव, स्वभावविशेष ( विशिष्टस्वभाव ), बाह्यभेद, बाह्यसम्बन्ध, पराश्रितभाव एवं उपचार के आधार पर वस्तुस्वरूप का निर्णय करती है उसे व्यवहारनय कहते हैं। इनमें सोपाधिक पदार्थ, औपाधिकभाव, बाह्यसम्बन्ध एवं उपचार असद्भूतव्यवहारनय के विषय हैं तथा बाह्यभेद एवं स्वभावविशेष सद्भूतव्यवहारनय के। पराश्रितभाव बाह्यसम्बन्ध में गर्भित है।
असद्भूतव्यवहारनय में परस्पर विपरीत विषय समाविष्ट हैं। यह वास्तविक विषय का अवलम्बन करके भी प्रवृत्त होता है और अवास्तविक का भी। उदाहरणार्थ, सोपाधिक पदार्थ, औपाधिकभाव, बाह्यसम्बन्ध तथा उपचार, इन चार का अवलम्बन कर यह वस्तुस्वरूप का निर्णय करता है। इनमें प्रथम तीन विषय वास्तविक हैं तथा अन्तिम अर्थात् उपचार ( उपचार से दिया गया नाम ) अवास्तविक।
यद्यपि आलापद्धतिकार ने अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म के अन्यत्र समारोपण को असद्भूतव्यवहार कहा है और असद्भूतव्यवहारनय को ही 'उपचार' संज्ञा दी है,' तथापि एक अन्य सूत्र में असद्भूतव्यवहारनय को भिन्नवस्तुसम्बन्ध का भी प्रतिपादक कहा है और भिन्नवस्तु-सम्बन्ध यथार्थ है। अत: असद्भूतव्यवहारनय का विषय वास्तविक पदार्थ भी है। इसके अतिरिक्त कर्मों के उदय के निमित्त से होने वाली मनुष्यादि सोपाधिक पर्यायों, मोह-रागादि औपाधिक भावों तथा कर्मों के उपशम, क्षयोपशम आदि के निमित्त से होनेवाले औपाधिभावों को भी, जो वास्तविक हैं, जयसेन आदि आचार्यों ने तथा पञ्चाध्यायीकार ने असद्भूतव्यवहारनय का विषय बतलाया है। इसका स्पष्टीकरण इसी अध्याय में आगे किया जायेगा तथा 'व्यवहार
१. “अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एवो
पचारः।" आलापपद्धति/सूत्र, २०७-२०८ २. “भिन्नवस्तुसम्बन्धविषयोऽसद्भूतव्यवहारः।"
वही/पादटिप्पणी/द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, पृ० २२८ ३. (क) “अशुद्धनिश्चयोऽपि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव।"
. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, ११३-११५
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