Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय / ५७
गुण को उपचारत: 'निर्विचिकित्सा' शब्द से अभिहित किया जाता है।'
मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रणीत शास्त्रों को पढ़-सुनकर उनसे प्रभावित न होना अमूढदृष्टिगुण की उत्पत्ति का हेतु है। अत: इसे जिनेन्द्रदेव ने उपचार से अमूढ़दृष्टिगुण नाम दिया है। इसके प्रसाद से अन्तस्तत्त्व ( आत्मा ) और बहिस्तत्त्व ( शरीर ) का निश्चय हो जाने पर समस्त परद्रव्यों में आत्मबुद्धि, उपादेयबुद्धि, हितबुद्धि और ममत्वभाव का त्यागकर त्रिगुप्ति द्वारा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मक निजात्मा में जो निश्चलरूप से स्थित होने का गुण है, उसका नियतस्वलक्षण की अपेक्षा अमूढदृष्टिगुण नाम है।
भेदाभेदरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग तो स्वभाव से शुद्ध है। उसका जब अज्ञानियों या अशक्त पुरुषों के दूषित आचरण से अपवाद होता है तब आगम के अनुसार यथाशक्ति धन की सहायता से अथवा धर्मोपदेश से जो दोष का निवारण किया जाता है उसे उपगूहन गुण का साधक होने से उपचार से उपगृहनगुण नाम दिया गया है। उसकी सहायता से निजनिर्दोषपरमात्मा के प्रच्छादक मिथ्यात्वरागादि दोषों का स्वात्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप ध्यान से जो प्रच्छादन अर्थात् विनाश किया जाता है उसकी नियतस्वलक्षण की दृष्टि से उपगृहनगुण संज्ञा है।'
भेदाभेदरत्नत्रय के धारक चातुर्वर्ण संघ में जब कोई दर्शनचारित्रमोह के उदय से दर्शन, ज्ञान अथवा चारित्र को छोड़ना चाहता है तब आगम के अनुसार यथाशक्ति धर्मोपदेश से, धन से अथवा अन्य किसी भी उपाय से उसे जो धर्म में स्थिर किया जाता है उसे स्थितीकरण में साधक होने से उपचार से स्थितीकरण संज्ञा दी गई है। उसकी सहायता से धर्म में दृढ़ता हो जाने पर मिथ्यात्वरागादि के अभाव से निजपरमात्मस्वभावजन्य सुखामृत के आस्वादन में चित्त का स्थिर होना नियतस्वलक्षण की अपेक्षा स्थितीकरण है।'
बाह्य और आभ्यन्तर रत्नत्रय के धारक चतुर्विध संघ से बछड़े से गाय के समान नि:स्वार्थ प्रेम करना वात्सल्य गुण की अभिव्यक्ति का निमित्त है। अत: इसे उपचार से वात्सल्य कहा गया है। इसकी सहायता से जब धर्म में दृढ़ता हो जाती है तब मिथ्यात्वरागादि समस्त शुभाशुभभावों में प्रीति का अभाव होने पर स्वशुद्धात्मानुभूतिजन्य परमानन्द के आस्वादन में जो प्रीति का आविर्भाव होता है उसकी नियतस्वलक्षण के अनुसार वात्सल्यगुण संज्ञा है।"
१. बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा, ४१ ।। २. वही
३. वही ४. वही
५. वही
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