Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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४८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
दी हैं। यहाँ अलग-अलग पदार्थों के लिए किये गये एक ही नाम-प्रयोग पर नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि तथा उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से विचार किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि रागद्वेषमोह परमार्थत: ( यथार्थत: ) आस्रव और बन्ध हैं तथा पुद्गलकर्मों के आगमन और संश्लेष के लिए दिये गये ये नाम अवास्तविक हैं।
रागद्वेषमोहाभाव की 'संवर' संज्ञा . ज्ञान जब शुभाशुभविकल्पों से रहित होकर शुद्धोपयोगमय हो जाता है तब रागद्वेषमोह की उत्पत्ति नहीं होती। इससे द्रव्यकर्मों का आस्रव रुकता है। फलस्वरूप द्रव्यकर्मों के आस्रवनिरोध का हेतु होने से रागद्वेषमोह का निरोध संवर का नियतस्वलक्षण है। अत: अरहन्त भगवान् ने नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से इसे संवर शब्द से अभिहित किया है, जिस पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
___“एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयद् अविचलितम् अवतिष्ठते तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किश्चनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति। ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भः प्रभवति। शुद्धात्मोपलम्भाद् रागद्वेषमोहाभावलक्षण: संवरः प्रभवति।""
- इस प्रकार यह भेदविज्ञान जबरंचमात्र भी ज्ञान के विपरीत न होकर अर्थात् रागादिविकार से ग्रस्त न होकर स्वभाव में अविचलित रहता है तब शुद्धोपयोगमय होने से ज्ञान ज्ञान ही रहता है, किंचित् भी रागद्वेषमोह नहीं करता। इस प्रकार भेदविज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है। उससे रागद्वेषमोहाभावरूप संवर फलित होता है।
रागद्वेषमोह का अभाव द्रव्यकर्मों के निरोध का हेतु है। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि का अनुसरण करते हुए कार्य में कारण के उपचार द्वारा द्रव्यकर्मों के निरोध को 'संवर' संज्ञा दी है। यहाँ उपर्युक्त दोनों दृष्टियों से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि रागद्वेषमोहाभाव की संवर संज्ञा वास्तविक है और द्रव्य- कर्मों के निरोध की अवास्तविक।
शुद्धोपयोग की 'निर्जरा' संज्ञा बहिरंग और अन्तरंग तपों से संवर्धित शुद्धोपयोग से द्रव्यकर्मों का एकदेशक्षय होता है। अत: यह निर्जरा का नियत स्वलक्षण है। फलस्वरूप नियत१. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, १८१-१८३ २. “कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिबृंहितशुद्धोपयोगो जीवस्य ... ... निर्जरा।"
पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा, १०८
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