Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय / ३५
के आकार प्रतिबिम्बित होते हैं, जिन्हें ज्ञेयाकार कहते हैं। ज्ञेयाकारमय ज्ञान के साथ आत्मा का तादात्म्य या अभेद होता है, इसलिए उसके साथ आत्मा का साक्षात् ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध घटित होता है। अत: अपनी ज्ञेयाकारात्मक ज्ञानपर्याय को जानने से आत्मा को परद्रव्यों का ज्ञान होता है। इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है -
“ननु कुत आत्मनो द्रव्यज्ञानरूपत्वं द्रव्याणां च आत्मज्ञेयरूपत्वं च ? परिणामसम्बन्धत्वात् । यतः खलु आत्मद्रव्याणि च परिणामैः सह सम्बन्ध्यन्ते, तत आत्मनो द्रव्यालम्बनज्ञानेन द्रव्याणां तु ज्ञानमालम्ब्य ज्ञेयाकारेण परिणतिरबाधिता प्रथ्यते।"३
इसका भाव यह है कि द्रव्यों के निमित्त से आत्मा का ज्ञानस्वभाव द्रव्यज्ञानरूप से परिणमित होता है तथा आत्मा के ज्ञानस्वभाव के निमित्त से द्रव्य अपने ज्ञेयस्वभावरूप से परिणमित होते हैं। इस परस्परावलम्बित निमित्तनैमित्तिक परिणाम के द्वारा परद्रव्य और आत्मा में ज्ञेय-ज्ञायक-सम्बन्ध घटित होता है।
इस प्रकार चूँकि परद्रव्यों के निमित्त से ज्ञान की ज्ञेयाकारात्मक अवस्था होती है और उस अवस्था के ज्ञान से आत्मा को परद्रव्यों का ज्ञान होता है, इसलिए निमित्तनैमित्तिक बाह्य सम्बन्ध के द्वारा केवली भगवान् परद्रव्यों को जानते हैं। अत: जब हम बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से देखते हैं, तभी केवली भगवान के समस्त परद्रव्यों के ज्ञायक होने का सत्य दृष्टिगोचर होता है। इसी अभिप्राय से केवली भगवान् को व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहा गया है -
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।।
- केवली भगवान् व्यवहारनय से समस्त परद्रव्यों को जानते हैं ( अर्थात् व्यवहारनय से सर्वज्ञ हैं )। निश्चयनय से आत्मा को ही जानते हैं ( अर्थात् निश्चयनय से आत्मज्ञ ही हैं )।
यहाँ केवली भगवान् को व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहकर निश्चयनय से सर्वज्ञ होने का निषेध किया गया है। निश्चयनय से उन्हें आत्मज्ञ बतलाया गया है, क्योंकि १. “नीलपीतादिबहि:पदार्था आदर्श बिम्बवत् परिच्छित्त्याकारेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति।"
प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, १/२६ २. "नैमित्तकभूतज्ञेयाकारान् आत्मस्थान् अवलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपचर्यन्ते।"
वही/तत्त्वदीपिका, १/२६ ३. वही, १/३६ ४. नियमसार/गाथा, १५९
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