Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
निश्चयनय / ४१
—
यही भाव उन्होंने निम्नलिखित गाथा में अभिव्यक्त किया है। दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। ' - साधु को सदा दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना करनी चाहिए, किन्तु निश्चयनय से ये तीनों एक अखण्ड आत्मा ही हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
इसे आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार स्पष्ट किया है " जैसे किसी देवदत्त नामक पुरुष के ज्ञान, श्रद्धान और आचरण देवदत्त के स्वभाव से भिन्न न होने के कारण देवदत्त ही हैं, अन्य वस्तु नहीं, वैसे ही आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण भी आत्मस्वभाव से पृथक् न होने के कारण आत्मा ही हैं, अन्य वस्तु नहीं। इसलिए 'साधु को नित्य दर्शनज्ञानचारित्र की उपासना करनी चाहिए, इस व्यवहारनयात्मक कथन से यह निश्चयकथन प्रद्योतित होता है कि एकमात्र आत्मा ही उपास्य है । ' अधोलिखित गाथा में भी यही तथ्य प्रकट किया गया है।
,,?
जह्मा जाणइ णिच्चं तह्मा जीवो द जाणओ णाणी । दु गाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ॥ '
- क्योंकि जीव ही सदा जानता है इसलिए वही ज्ञायक है, वही ज्ञानी है । इस तरह ज्ञान ज्ञायक से अभिन्न है ।
इसकी व्याख्या में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं "अथ जीव एवैको ज्ञानं चेतनत्वात् ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः ।”* अर्थात् चेतन होने के कारण एकमात्र जीव ही ज्ञान है, इसलिए ज्ञान और जीव में अभेद है।
तात्पर्य यह कि जब हम मौलिक अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि समस्त जीवधर्म जीव ही प्रतीत होते हैं, किन्तु जब संज्ञादिबाह्यभेद की दृष्टि से अवलोकन किया जाता है तब जीव और दर्शनज्ञानादि गुणों में परस्पर अन्यत्व दिखाई देता है।
इसी प्रकार स्वात्मा का सम्यग्दर्शन, स्वात्मा का सम्यग्ज्ञान तथा
१. समयसार / गाथा, १६
२. “यथा देवदत्तस्य कस्यचिद् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद् देवदत्त एव न वस्त्वन्तरं तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमाद् आत्मैव न वस्त्वन्तरं तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते ।" वही / आत्मख्याति / गाथा, १६
३. वही / गाथा, ४०३
४. वही / आत्मख्याति / गाथा, ३९०-४०४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org