Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो । उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।। '
निश्चयनय / ३९
चैतन्यपरिणामभूत दर्शनज्ञानरूप उपयोग, उपयोग में ही स्थित है, क्रोधादि भावों में नहीं, और क्रोध की सत्ता क्रोध में ही है, उपयोग में नहीं । आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों में तथा शरीरादि नोकर्मों में भी उपयोग स्थित नहीं है और उपयोग में इन कर्म - नोकर्मों का अस्तित्व नहीं है। कारण यह है कि इनके स्वरूप अत्यन्त विपरीत हैं, अत: इनमें परमार्थतः आधाराधेयसम्बन्ध नहीं है ।
२
आत्मा का स्वरूप के साथ तादात्म्य होता है, इसलिए मौलिकअभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखने पर स्वरूप आधेय के रूप में और आत्मा उसके आधार के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।
तथापि बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से प्राप्त ज्ञान के अनुसार परद्रव्य के साथ आत्मा का आधाराधेय सम्बन्ध होता है। इसका निरूपण अगले अध्याय में किया जायेगा ।
इस प्रकार मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) से अवलोकन करने पर निश्चित होता है कि परद्रव्य से आत्मा किसी भी प्रकार सम्बद्ध नहीं है, न स्वस्वामिभावरूप से, न कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण, इन षट्कारकों के रूप में। निश्चयदृष्टि से वह परद्रव्यों से सर्वथा पृथक् दिखाई देता
है।
मौलिक- अभेदावलम्बिनी दृष्टि से आत्मस्वरूप का निर्णय
वस्तु और उसके गुणपर्यायरूप धर्मों में प्रदेश ( सत्ता ) की अपेक्षा अभेद है, किन्तु संज्ञा ( नाम ), संख्या, लक्षण और प्रयोजन की दृष्टि से भिन्नता ( अन्यत्व ) है । जैसे जीव और उसके दर्शनज्ञानादि गुणों के प्रदेश पृथक्-पृथक् नहीं हैं, वे ( जीव और दर्शनज्ञानादि गुण ) एक ही वस्तु हैं, तथापि उनमें संज्ञादि की अपेक्षा भिन्नता है। यथा, जीवद्रव्य की संज्ञा 'जीव' है और ज्ञानगुण की संज्ञा 'ज्ञान' । यह संज्ञा की दृष्टि से भेद है। जो चतुर्विध प्राणों से जीता है, जियेगा और और जीता था, वह जीव है तथा जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान होता है वह ज्ञान है। यह लक्षण की अपेक्षा अन्यत्व है। अविनश्वर रहते हुए बन्धमोक्षादि - पर्यायरूप से परिणमित होना जीवद्रव्य का प्रयोजन है और पदार्थों को जानना ज्ञानगुण का
१. समयसार /गाथा १८१-१८२
२. " न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा सन्ति परस्परमत्यन्तं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसम्बन्ध-शून्यत्वात् ।" वही / आत्मख्याति /गाथा १८१-१८३
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