Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय / ३३
योग और उपयोग करता है, जिसके निमित्त से वियोग घटित होता है। इसे उपचार से परद्रव्य का त्याग कहते हैं। इस तरह उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि आत्मा को परद्रव्य के ग्राहक और त्याजक के रूप में पाती है। किन्तु मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से यह असत्य ठहरता है।
आत्मा का तादात्म्य स्वपरिणाम ( स्वपर्याय ) से होता है। उसी में वह प्रवृत्त ( व्याप्त ) होता है और उसी से निवृत्त होता है। अत: मौलिक-अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि में आत्मा स्वपरिणाम के ही ग्राहक और त्याजक के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। इसके अनुसार आत्मा की जो परद्रव्येच्छारूप परिणाम में प्रवृत्ति और उससे निवृत्ति होती है उन्हें उपचार ( उपचारावलम्बी व्यवहारनय ) से परद्रव्य का ग्रहण और त्याग कहा जाता है।
परद्रव्य से निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध का निषेध पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव रागद्वेषमोहरूप में परिणमित होता है और जीव के रागद्वेषमोहपरिणाम के निमित्त से पुद्गलद्रव्य कर्मरूप में परिणमित होता है। जब इस बाह्य सम्बन्ध पर ध्यान देते हैं अर्थात् परद्रव्यसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से अवलोकन करते हैं तब जीव और पुद्गल के निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की सत्यता का बोध होता है। किन्त, जब दोनों के भिन्न-भिन्न स्वभावों पर दृष्टि डालते हैं अर्थात् मौलिक-भेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखते हैं तब निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता, सर्वथा असम्बन्ध ही दृष्टिगोचर होता है। जहाँ स्वभाव अलग-अलग दिखाई दे रहे हों, जहाँ प्रदेश अलग-अलग दिखाई दे रहे हों वहाँ कोई सम्बन्ध कैसे दिखाई दे सकता है ? इसीलिए अरहन्तदेव ने परद्रव्य और आत्मा में किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को निश्चयदृष्टि से असत्य बतलाया है, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र की अधोलिखित उक्तियों से स्पष्ट है : 'नास्तिसर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः' तथा 'एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः।"
१. (क) “निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि
परिणामः।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ८०-८२ (ख) “तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोग
समवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपित:
सर्वथाप्यनवद्यत्वात् ।" तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १/७ २. समयसार/कलश, २०० ३. वही/कलश, २०१
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