Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय / १९
मूलपदार्थावलम्बिनी ( द्रव्यार्थिक ) दृष्टि से आत्मस्वरूप का निर्णय
समयसार की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि जब हम जीव और पुद्गल की अनादि संयोगपर्याय को एक पदार्थ के रूप में देखते हैं तब जीव मनुष्यादिरूप भी दिखाई देता है, आस्रवमय ( रागद्वेषमोहमय ) भी दृष्टिगोचर होता है, पुण्यमय ( शुभभावमय ) भी प्रतीत होता है, पापमय ( अशुभभावमय ) भी परिलक्षित होता है, बन्धमय ( कर्मबद्ध ) भी दृष्टि में आता है, संवररूप ( रागद्वेषमोहाभावरूप ) भी दिखाई देता है, निर्जरारूप ( शुद्धोपयोगरूप ) भी अनुभव में आता है और मोक्षमय ( कर्ममुक्त ) भी घटित होता है। इस प्रकार पर्यायाश्रित व्यवहारनय से देखने पर जीव की सप्ततत्त्वात्मक या नवपदार्थात्मक अवस्थाएँ भूतार्थ सिद्ध होती हैं। किन्तु जब एकमात्र जीवद्रव्यरूप मूलपदार्थ को दृष्टि में रखकर अवलोकन करते हैं तब जीव चैतन्यभावमात्र प्रतीत होता है, उसकी सप्ततत्त्वात्मक या नवपदार्थरूप अवस्थाएँ अनुभव में नहीं आतीं। अत: निश्चयनय से अवलोकन करने पर ये अभूतार्थ सिद्ध होती हैं। २ ।।
___ अन्यत्र भी वे कहते हैं कि जो यह स्वत:सिद्ध होने के कारण अनादिअनन्त नित्यप्रकाशमान विशदज्योति ज्ञायकरूप एक पदार्थ है वह संसारावस्था में अनादि बन्धपर्याय की दृष्टि से विचार करने पर कर्मपुद्गलों के साथ क्षीरनीरवत् अभिन्न दिखाई देता है, किन्तु जब द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा विचार करते हैं तब प्रतीत होता है कि कर्मोदयवश जो शुभाशुभभाव उत्पन्न होते हैं, ज्ञायकभाव उनके रूप में परिवर्तित नहीं होता, ज्ञायक ही बना रहता है। अत: समस्त शेष द्रव्यों से सदा भिन्न बने रहने के कारण उसे ( ज्ञायकरूप आत्मा को ) शुद्ध कहा जाता है।'
इस प्रकार मूलपदार्थावलम्बिनी निश्चयदृष्टि जीव को पुद्गलसंयोग से अलग कर मूलरूप में देखती है और तब इस निश्चय पर पहुँचती है कि जीव सप्ततत्त्वात्मक या नवपदार्थात्मक अवस्थाओं से सदा अलग रहनेवाला चिन्मात्र तत्त्व है। १. 'नवपदार्थरूपेण वर्तनानवार्थः।' पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका, गाथा ७१-७२ २. 'बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां
भूतार्थानि। अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि। ततोऽमीषु नव
तत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते।' समयसार/आत्मख्याति/गाथा, १३ । ३. 'यो हि नाम स्वत:सिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतोविशदज्योतिर्जायक एकोभावः स
संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत् कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तकानाम्पात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात् प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्येत।'
वही/गाथा, ६
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