Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय । २९
'तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे।'' - वस्तु भेद होने पर ( भिन्न वस्तुओं में ) कर्ता-कर्मभाव सम्भव नहीं
इसलिए वस्तुभेदरूप मौलिक भेद का अवलम्बन करने वाली निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने जीव और पुद्गल में कर्ता-कर्मभाव का निषेध किया है, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द ने निम्नलिखित शब्दों में प्रस्तुत किया है -
जे पुग्गलदव्वाणं परिणामा होति णाण आवरणा । __ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।२।
- पुदगल द्रव्य के जो ज्ञानावरणादि परिणाम होते हैं उनका कर्ता आत्मा नहीं है, यह जो जानता है वह ज्ञानी है।
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे ।।
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।।
-जीव न घट का कर्ता है, न पट का, न अन्य द्रव्यों का। उसके योग और उपयोग इनके निमित्तकर्ता होते हैं। इन योग और उपयोग का ही जीव कदाचित् ( अज्ञानावस्था में ) कर्ता होता है।
जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।। ण वि कुणइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोलम्पि ।।
-जीव के शुभाशुभ भावों के निमित्त से पुद्गल द्रव्य कर्मरूप में परिणमित हो जाता है और पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव रागद्वेषमोहरूप में परिणमित होता है। किन्तु, न तो जीव से पुद्गलकर्मों की उत्पत्ति होती है, न पुद्गलकर्मों से जीव के रागद्वेषमोह-परिणामों की। पदगलद्रव्य से ही पुद्गलकर्म उत्पन्न होते हैं और मोहरागद्वेष की उत्पत्ति जीव से ही होती है। जीव और पुद्गल इन कार्यों में केवल एक-दूसरे के निमित्त बनते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र इस तथ्य को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं - जैसे मिट्टी से मिट्टी के स्वभाववाला कलश ही उत्पन्न हो सकता है, वैसे ही जीव से जीव
१. समयसार/कलश, २०१ २. वही/गाथा, १०१ ३. वही/गाथा, १०० ४. वही/गाथा, ८०-८१
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