Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चयनय । २३
से प्रतीत होता है कि आत्मा चेतनस्वभाव है और शरीर जड़स्वभाव। अत: दोनों के स्वभावों में अत्यन्त भेद होने से उनका एकवस्तुत्व घटित नहीं होता। इसलिए उनमें भिन्नत्व ही है।
आत्मा और कर्म में बद्धत्व या संश्लेष का निषेध
मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुगमन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के कर्मबद्ध या कर्मसंश्लिष्ट होने का भी निषेध किया है -
जीवे कम्मं बद्धं पुटुं चेदि ववहारणयभणिदं ।।
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुढे हवइ कम्मं ।'
अमृतचन्द्र सूरि ने इस गाथा के भाव को निम्नलिखित शब्दों में समझाया है, “जीव और पुद्गलकर्म की संयुक्त बन्धपर्याय पर दृष्टि डालने से वे अभिन्न दिखाई देते हैं। इसलिए व्यवहारनय ( संश्लेषसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ) का अनुसरण करते हुए कहा जाता है कि जीव में कर्म बद्धस्पृष्ट हैं। किन्तु जब उनके भिन्नवस्तुत्व पर दृष्टिपात किया जाता है तब वे एक दूसरे से बिल्कुल पृथक् दिखाई देते हैं। तब निश्चयनय ( मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ) का अनुगमन करते हुए कहा जाता है कि जीव में कर्म अबद्धस्पृष्ट हैं।"३
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय के अवलम्बन द्वारा आत्मा के कर्मबद्ध होने का निषेध कर आत्मा की सत्ता में परद्रव्य की सत्ता के अभाव की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
जीव और पुद्गलकर्म के परस्परावगाहरूप संश्लेषसम्बन्ध को ही बन्ध कहते हैं। अत: निश्चयनय से बद्धत्व का निषेध निश्चयनय से संश्लेषसम्बन्ध का
१. “इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समावर्तितावस्थायां कनककलधौतयो
रेकस्कन्धव्यवहारवद् व्यवहारमात्रेणैवैकत्वं न पुनर्निश्चयतः। निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोगस्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्ते: नानात्वमेवेत्येवं किल नयविभागः।"
समयसार/आत्मख्याति/गाथा, २७ २. वही/गाथा, १४१ ३. “जीवपुद्गलकर्मणोरेकबन्धपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कमेंति
व्यवहारनयपक्षः। जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यन्तव्यतिरेकाज्जीवेऽबद्धस्पृष्टं
कर्मेति निश्चयनयपक्षः।" वही/आत्मख्याति/गाथा, १४१ ४. “एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बन्धः सिद्धयेत्।"
वही/आत्मख्याति/गाथा, ६९-७०
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