Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
मूलपदार्थावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से अवलोकन करने पर आत्मा का अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त रूप भी दृष्टिगोचर होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं -
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं ।
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।'
अर्थात् जिस दृष्टि से देखने पर आत्मा अबद्धस्पृष्ट ( कर्मों से अबद्ध ) अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त दिखाई देता है वह दृष्टि शुद्धनय है।
इसकी व्याख्या आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार की है : जब आत्मा को अनादि कर्मबद्ध पर्याय की ओर से देखते हैं तब उसकी कर्मबद्धता यथार्थ प्रतीत होती है, किन्तु जब उसके उस चैतन्यस्वभाव पर ध्यान देते हैं जो पुदगल के जड़स्वभाव से सदा अछूता रहता है तब कर्मबद्धता असत्य सिद्ध होती है।
जिस समय आत्मा को देव, मनुष्य, नारक आदि पर्यायों के पक्ष से अनुभव करते हैं उस समय आत्मा के विभिन्न रूप सत्य ठहरते हैं, किन्तु जब उन पर्यायों में व्याप्त एक चैतन्यस्वभाव पर दृष्टि डालते हैं तब विभिन्न रूप मिथ्या सिद्ध होते हैं।
जब गुणों की हीनाधिक अभिव्यक्तिरूप वृद्धिहानिपर्याय की दिशा से आत्मा का अवलोकन किया जाता है तब उसका अनियतत्व भूतार्थ प्रतीत होता है, परन्तु जब सदा व्यवस्थित ( एक ही स्थिति में ) रहने वाले चैतन्यस्वभाव की ओर उन्मुख होकर निरीक्षण करते हैं तब अभूतार्थ ठहरता है।'
जिस समय चैतन्यसामान्य के ज्ञानदर्शनादि विशेषों की ओर दृष्टि करके देखते हैं उस समय आत्मा का सविशेषत्व वास्तविक सिद्ध होता है, किन्तु जब ज्ञानदर्शनादि विशेषों में व्याप्त चैतन्य रूप मूलस्वभाव पर दृष्टि डाली जाती है तब सविशेषत्व अभूतार्थ प्रमाणित होता है। १. समयसार/गाथा, १४ २. “तथात्मनोऽनादिबद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।"
वही/आत्मख्याति/गाथा, १४ ३. “तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेक
मात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।" वही/आत्मख्याति/गाथा, १४ ४. “तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थिता
त्मास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।' वही/आत्मख्याति/गाथा, १४ . ५. "तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्त
विशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।" वही/आत्मख्याति/गाथा, १४
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