Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि । १३
शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति उपपन्न नहीं होती।' निष्कर्षत: शरीर जीव नहीं है, अपितु शुद्धचैतन्य तत्त्व ही जीव है। यह नयभेद से अनभिज्ञ व्यक्ति की भ्रान्तबुद्धि का दृष्टान्त है। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं -
“जो व्यवहार को ही परमार्थबुद्धि से ग्रहण करते हैं उन्हें शुद्धात्मा का ज्ञान नहीं होता। जो परमार्थ को ही परमार्थरूप से ग्रहण करते हैं उन्हें शुद्धात्मस्वरूप की प्रतीति हो पाती है।"
तथा जो व्यवहारनय को सर्वथा असत्य मानकर एकमात्र निश्चयनय को सत्य स्वीकार करते हुए प्रवृत्त होते हैं उनके विषय में आचार्य कहते हैं -
णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता ।
णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई ।।'
- कुछ लोग ऐसे होते हैं जो निश्चयनय को निश्चयनय से तो जानते नहीं हैं, किन्तु उसका अवलम्बन करते हैं। वे बाह्य चारित्र में आलसी बन जाते हैं और चारित्र से हाथ धो बैठते हैं।
उपर्युक्त अनर्थों से बचने के लिए मुमुक्षु शिष्य को निश्चय और व्यवहार नयों का समीचीन ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है।
१. ( क ) नैवं नयविभागानभिज्ञोऽसि -
ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ।।
समयसार/गाथा २७ ( ख ) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चया
त्रु स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे
त्रातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः।। समयसारकलश, २७ २. “ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते ते समयसारमेव न चेतयन्ते। य एव परमार्थं परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते त एव समयसारं चेतयन्ते।"
समयसार/आत्मख्याति, गाथा ४१४ ३. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका, गाथा १७२ में उद्धृत
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