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। प्रथम वाचनीय विषय ।
कर्मकी मूल तथा उत्तर प्रकृतियां। १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नामकर्म, ७ गोत्रकर्म, ८ अन्तराय । .. इन आठों ही मूल प्रकृतियोंका कार्य बताते हैं,
- ज्ञानावरणीय कर्मका कार्य ज्ञान गुणको दबानेका है । दर्शनावरणीय कर्मका कार्य दर्शन गुणको आच्छादन करनेका है । वेदनीय कर्मका कार्य आत्माको सांसारिक सुख दुःखका अनुभव करानेका है । मोहनीय कर्मका कार्य आत्मीय चारित्र गुणको प्रगट न होने देनेका है। आयु कर्मका कार्य जीवात्माको संसारमें स्थिति करानेका है । नाम कर्मका कार्य जीवको अनेक प्रकारकी आकृतियां करानेका है । गोत्र कर्मका कार्य जीवको ऊंच नीच दशायें प्राप्त करानेका है। अन्तराय कर्मका कार्य आत्मीय अनन्त शक्तिको रुकावट करनेका है।
उत्तर प्रकृतियां। ____ ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियें पाँच होती हैं, ज्ञानगुण के पाँच भेद होते हैं, मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, केवल ज्ञान, इस पूर्वोक्त पाँच प्रकारके ज्ञानगुणको आच्छादन करनेवाली-१ मतिज्ञानावरणीय, २ श्रुतज्ञानावरणीय, ३ अवधिज्ञानावरणीय, ४ मनःपर्यव ज्ञानावरणीय, तथा ५ केवल ज्ञानावरणीय । ये पाँच प्रकृतियां हैं।
दर्शनगुणको दबानेवाली दर्शनावरणीय कर्मकी नव प्रकृतियां हैं, सो नीचे लिखे मुजब समझना.