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ध्यानःसाधना और सिद्धि
इसलिए संसार में रहना गलत नहीं है । संसार के प्रति आसक्त हो जाना, संसार की मूर्छा को अपने में बसा लेना गलत है । संसार तो सदा से है । इससे बचकर जाओगे तो भी कहाँ । लेकिन तुम संसार का हिस्सा न बन जाओ, संसार तुम्हारा हिस्सा बन जाए, ध्यान यही कला हमें देता है । ध्यान हमें वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह बनाने का उपाय है। मैंने संन्यास और संसार में बहुत फर्क नहीं पाया है । फर्क तो मनुष्य के अपने मन में है । वही मकानों में रहना, वैसा ही भोजन करना, उसी तरह से लोगों से मिलना-जुलना, फिर भी कुछ ऐसा है जो ऊपर उठा देता है। ठीक वही स्थिति जैसी जल में कमल की होती है । संसार में रहते हुए भी संसार का पंक छू नहीं पाता । संसार ही नहीं, वह अपनी काया को भी देखता है । स्वयं से अलग कि जब चाहें तब छोड़ने की तैयारी । यह निर्लिप्तता है। केवल कर्त्तव्य का पालन होता जाए, यही अभिलाषा है । वही सद्गृहस्थ है जो कर्त्तव्यपालन के भाव से ही कर्म करता है, यही उसका संन्यास है।
किसी सम्राट ने एक संत से अनुरोध किया कि प्रभु किसी दिन मेरे राजमहलों में आएँ और भोजन स्वीकार करें । संत ने कहा, सम्राट हम यहीं ठीक हैं । कन्दमूल, फल-फूल खा लेते हैं; प्रसन्न हैं। पर राजा निरंतर अनुरोध करता रहा, रोज आता और संत को राजमहल में आने का निमंत्रण देता । संत ने कहा, 'ठीक है हम कल आएँगे।' संत राजमहल में पहुँचकर भोजन स्वीकार करते हैं । थोड़ी देर राजमहल में ठहरते हैं। सम्राट उन्हें अपने महलों का निरीक्षण करवाता है । कुछ समय बाद संत महल से रवाना होते हैं। सम्राट भी यह सोचकर कि संत ने उनके महलों में आकर उन्हें उपकृत किया है । अतः वह भी साथ चलने की सोचने लगता है कि चलो थोड़ी दूर तक उन्हें छोड़ आता हूँ । लेकिन महल से बाहर निकलते ही उसने संत से पूछा, ‘प्रभु, संन्यासी और गृहस्थ में क्या फर्क है । क्योंकि मैंने देखा आप कपड़े भी पहनते हैं, भोजन भी करते हैं, मैं भले ही महलों में रहता हूँ लेकिन आपकी भी एक कुटिया है । हाँ, इतना जरूर है कि मैं विवाहित हूँ और आपके पत्नी नहीं है । तब क्या केवल इतना-सा ही फर्क है।'
संत मुस्कुराए, कुछ बोले नहीं, सिर्फ चलते रहे, चलते रहे । इधर सम्राट के मन में अचरज हो रहा है कि संत कुछ बोलते ही नहीं कि अब वापस चले जाओ कि बहुत देर हो गई। एक तो प्रश्न का जवाब नहीं दिया, ऊपर से घर जाने के लिए भी नहीं कह रहे । उसे मन में एक पीड़ा, एक कसक सता रही है कि राजमहल पीछे छूटता जा रहा है। इतनी दूर चलकर आ गए। वह बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है कि अब तो राजमहल की चोटी की हल्की-सी झलक दिखाई दे रही है। अब तो उससे रहा न गया। संत से बोला, बहुत हो गया महाराज, अब मैं चलता हूँ । संत ने कहा, 'प्रेम से जाओ,
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