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ध्यान ः साधना और सिद्धि
मनुष्य अपने जीवन और मन के बारे में कितना कम जानता है। धर्मशास्त्रों की प्रेरणा है कि हम बुराइयों को, असद् वृत्तियों को छोड़ दें। लेकिन क्या छोड़ पाते हैं ? क्यों नहीं छोड़ पाते हैं। क्योंकि मन की उच्छंखलता, अन्तर्मन का दोगलापन हमें छोड़ने नहीं देता । मनुष्य के अचेतन मन में कितना कुछ छिपा पड़ा है । ज्ञान हमें किस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है और अचेतन मन हमें किस गर्त की ओर धकेल रहा है । ओह, जिसे हम पुण्यात्मा कह जाते हैं, वह मन का कितना पापी है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए जब जीसस के समक्ष व्यभिचार के आरोप में महिला को दंड देने हेतु प्रस्तुत किया गया, तब जीसस ने यही कहा था कि वह व्यक्ति पहला पत्थर मारे जिसने जीवन में कभी मन में भी पाप न किया हो । बाहर के पाप-पुण्य तो दिखाई दे जाते हैं, लेकिन मन में छिपे हुए पापों का आकलन कैसे हो? ऐसा कौन है जिसने मन में भी पाप न किया हो । हो सकता है हमने माता-पिता को अपशब्द न कहे हों, पर हम नहीं कह सकते कि हमने उन पर मन में भी आक्रोश नहीं किया हो । मन में तो किया है, प्रगट न कर पाए यह व्यक्ति की विवशता या शालीनता हो सकती है।
ओह. व्यक्ति अपने मन के बारे में बहत कम जानता है । वह धर्म के द्वार पर आकर भी रीता ही रह जाता है । उसकी क्रियान्वितियाँ राख पर किया गया लेपन भर हो जाता है । जीवन भर सामायिक करने के बाद भी व्यक्ति के जीवन में कहीं समता के दर्शन नहीं होते । अन्तःकरण में सामायिक घटित होती ही नहीं। एक स्थान पर आसन लगा लेने से सामायिक नहीं होती । शायद इसी सामायिक को देखकर भगवान महावीर ने श्रेणिक से कहा था, एक सामायिक तुम पूर्णिया श्रावक से खरीद लाओ, तुम्हारी नरक टल जाएगी।' अगर सामायिक खरीद-फरोख्त की वस्तु होती तो मैं ही भेंट स्वरूप देता सैकड़ों सामायिक। अगर किसी आसन पर बैठकर की जाने वाली सामायिक खरीदी-बेची जा सकती, तो दुनिया में केवल इसी का व्यापार चलता। और जैसे आजकल जैनों में सपनों के चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं, वैसे केवल सामायिक खरीदने-बेचने के चढ़ावे होते । क्योंकि इतना कर लेने भर से नरकें टल रही थीं। लेकिन कुछ न हुआ। मनुष्य अपनी मन की तहों तक पहुँचा ही नहीं । सामायिक का स्वरूप आत्मसात हुआ ही नहीं। समता हासिल न हुई, विषमता से विरति न हुई । इसलिए, क्योंकि हम मूल तक पहुँचने में समर्थ न हुए। हम बालक की तरह सरोवर में ही चाँद के प्रतिबिम्ब को चाँद मानते रहे।
एक बालक से कहा गया तुम इतने रुग्ण हो, तुम्हें इतने रोग सता रहे हैं, तुम रोगों को छोड़ क्यों नहीं देते । बालक हँसा, वह हँसा डॉक्टर पर, वह हँसा हम सब पर
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