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जीवन जिएँ अन्तर्हदय से
शरीर और जीवन प्रकृति-प्रदत्त पुरस्कार है । कुदरत से मिली महान सौगात है। यह शरीर जिसे ज्ञानियों ने नश्वर और क्षणभंगुर कहा, वह भी परमात्मा का ही मंदिर है। इसे हम केवल शरीर की दृष्टि से ही न देखें, क्योंकि शरीर तो पशु और पक्षियों का भी होता है । और अगर मन के आधार पर जीवन के सारे मापदंडों का निर्णय करेंगे तो मन में बहुत ही कचरा भरा है, पशुता की धूल जमी है। हम केवल मन के आधार पर जीवन के मापदंडों का सही निर्णय नहीं कर पाएँगे। मन मंदिर है या मरघट, तुम्हें पता है। मन में समाधि है या संसार यह भी तुम अच्छी तरह जानते हो । मन में काया के प्रति आकर्षण है या कायनात (आकाश) का दर्शन हो रहा है इससे भी तुम अच्छी तरह वाकिफ हो । मन में ऐसा कुछ नहीं लगता कि प्रार्थनाओं में पुकारा जाए कि आओ प्रभु तुम मेरे मंदिर में आओ। कौन-सा मंदिर? क्या तुम पाते हो कि तुम्हारा मन मंदिर है ? मन में क्या इतनी स्वच्छता है कि उसमें देवत्व को आमंत्रित किया जा सके? ईश्वर उसके अन्तरघट में अवतरित होते हैं, जिसमें मन में पलने वाला कषाय और पशुत्व नहीं है। योग्य स्थान पर ही योग्य लोग आसीन होते हैं।
ऐसा हुआ कि एक बार कोई सम्राट् संत से मिलने गया। संत श्री कुटिया में नहीं थे। उनका शिष्य वहाँ था। उसने कहा, संत श्री अभी थोड़ी देर में आते ही हैं। आप बैठ जाइए। लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, ठीक है । मैं यहाँ खड़े रहकर ही प्रतीक्षा कर लेता हूँ। कुछ समय और व्यतीत हो गया। संत साहब न आ पाए। तो शिष्य ने फिर निवेदन किया कि आप बैठ जाएं । लगता है, संत श्री को आने में कुछ देर हो रही है । सम्राट ने कहा, मैं कुटिया के बाहर टहलता हूँ । वह बाहर आकर घूमने लगा। कुछ देर बाद संत वापस आए । सम्राट भी उनके साथ कुटिया में अंदर आ गया। संत ने आसन बिछाया और सम्राट को बैठने के लिए कहा। सम्राट बैठ गया। दोनों के मध्य वार्तालाप हुआ और कुछ समय बाद सम्राट चला गया । तब शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि मैंने उस व्यक्ति से कितनी बार कहा कि बैठ जाओ, पर वह नहीं बैठा और आपके कहने पर बैठ गया । संत ने बताया, जानते हो वह कौन था? वह इस देश का सम्राट था और जब तक उचित आसन न हो, उचित सम्मान न हो, वह कैसे बैठ सकता है।
सम्राट को उचित आसन न मिले तो वह नहीं बैठता और परमात्मा को जब तक उचित स्थान नहीं मिलता तब तक वहाँ पर वह लीला-विहार नहीं करता । अपने मन की ऐसी पावन स्थिति बना लो कि परमात्मा स्वयं वहाँ प्रवेश करे । अभी तो वह कैसे आए। अभी तो न जाने कितना कचरा भरा हुआ है। अभी तो लोभ-लालच,
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