Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 147
________________ १३६ ध्यान : साधना और सिद्धि नया जन्म दे स्वयं को, साँस-साँस विश्वास। छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश ।। मुक्ति मानव मात्र का, जीवन का अधिकार । मन की खट-पट जो मिटे, तो हो मुक्त विहार ।। समझे वृत्ति-स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ । तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात ।। रूप बने, बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार । जनम-जनम के योग को, दोहराया हर बार ॥ संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर । जरा झांककर देख लो, अन्तस् में महावीर ।। सोने के ये पीजरे, मन के कारागार । टूटे पर, कैसे उड़े, नभ में पंख पसार । हर मानव से प्रेम हो, हो चैतन्य-विकास । आत्मोत्सव के रंग में, भीगी हो हर साँस ।। कालचक्र की चाल में, बनते महल मसान। फिर कैसा मन में गिला, सदा रहे मुस्कान ।। बीते का चिन्तन न कर, छट गया जब तीर । अनहोनी होती नहीं, होती वह तकदीर ।। करना था, क्या कर चले? बनी गले की फाँस । पंक सना, पंकज मिला, बदलें अब इतिहास ।। सच का अनुमोदन करें, दिखे न पर के दोष । जीवन चलना बाँस पे, छूट न जाये होश ।। बसें नियति के नीड़ में, प्रभु का समझ प्रसाद । भले जलाये होलिका, जल न सके प्रहलाद ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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