Book Title: Dhyan Sadhna aur Siddhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 154
________________ ध्यानयोग : प्रयोग-पद्धति Jain Education International मुक्ति-सूत्र अन्तर- हृदय की दृष्टि में, बस, मुक्ति का आकाश हो । चिर दिव्यता के लोक में, शाश्वत हमारा वास हो ॥ १ ॥ जागे चिरन्तन आत्म-ज्योति, विषय से हम दूर हों । करुणा-सरलता-सत्य-श्रद्धा भक्ति से भरपूर हों ॥ २ ॥ यह देह आखिर मरणधर्मा, देह से उपरत रहें । विश्राम हो चैतन्य में, हर क्षण सदा जागृत रहें ॥ ३ ॥ हम हों न हों, फिर भी जगत है, जगत बस इक सिलसिला । कितने यहाँ आये गये, फिर क्यों करें मन में गिला ॥४ पृथ्वी-पवन-जल-नभ-अगन, हर रूप से मैं भिन्न हूँ । हूँ साक्षी भर संसार का, सत् चित् सदा आनन्द हूँ ॥५ ॥ मैं नर नहीं, नारी नहीं, इन्द्रिय नहीं, नहीं बद्ध हूँ । मैं मुक्त अविचल आत्मा, इस बोध से संबुद्ध हूँ ॥ ६ ॥ मिथ्या अहं के दोष से, दूषित हुई है भावना | कर्त्ता नहीं, द्रष्टा बनूँ, मंगलमयी हो कामना ॥७ ॥ वो है बँधा जो मानता, खुद को बँधा संसार से । जो मुक्त माने स्वयं को, वो मुक्त है जंजाल से ॥८ ॥ यह विश्व तुझ में व्याप्त है, तू व्याप्त लोकालोक में । रे छोड़ मन की क्षुद्रता, हो लीन आतम- लोक में ॥ ९ ॥ चिन्तन करें, मैं कौन हूँ, आया यहाँ किस लोक से ? क्या है यथार्थ स्वरूप मेरा जान निज आलोक से ॥१० ॥ मैं मुक्त हूँ आनन्दघन, हूँ भिन्न जड़ के धर्म से, फिर भी ठगा जाता रहा, जाने यहाँ किस कर्म से ॥ ११ ॥ १४३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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