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ध्यानयोग : प्रयोग-पद्धति
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ज्योति-कलश है जिंदगी, सबमें सबका राम । भीतर बैठा देवता, उसको करो प्रणाम ॥ काया मुरली बाँस की, भीतर है आकाश । उतरें अन्तर्-शून्य में, थिरके उर में रास ॥
मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान । भक्ति से शृंगार हो, रोम-रोम रसगान ।।
मन मन्दिर इंसान का, मरघट, मन श्मशान । स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन निर्बल, बलवान् ।। मन की गर दुविधा मिटे, मिटे जगत्-जंजाल । महागुफा की चेतना, काटे मायाजाल ॥ जग जाना, पर रह गये, खुद से ही अनजान । मिले न बिन भीतर गये, भीतर का भगवान ।। 'समझ' मिली, तो मिल गयी, भवसागर की नाव । बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ॥ मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्ष-मार्ग है ध्यान । भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान ।। मनोभाव, अन्तदशा, समझ सका है कौन? बोले, वह समझे नहीं, जो समझे, सो मौन ।। सद्गुरु बाँटे रोशनी, दूर करे अंधेर । अंधों को आँखें मिलें, अनुभव भरी सबेर ।। प्रज्ञा-पुरुष प्रकाश दे, अन्तर्-दृष्टि योग । समझ सके जिससे स्वयं, मन में कैसा रोग ।।
चित्-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्लाद । मुखरित होता मौन में, शाश्वत सोहं नाद ।।
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