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ध्यान : साधना और सिद्धि
अपनी ही अथाह गहराइयों में डूबें । बस चार चरणों की ही तो बात है । पाँचवाँ चरण तो मंजिल की उपलब्धि का चरण होगा। डग भरो कि भोर हुई।
प्रयोग-पद्धति ध्यान के लिए अपने अनुकूल आसन का चुनाव करें । उपयुक्त मुद्रा अपनाएँ और ध्यान का प्रयोग प्रारंभ करें।
प्रथम चरण : एकाग्रता
५ मिनट प्रथम चरण में अर्धोन्मीलित नेत्रों से अर्थात् आधी खुली, आधी बन्द आँखों से चित्त को नासाग्र पर केन्द्रित करें। यह त्राटक है । नाक के शिरोबिंदु को लगातार एकटक देखें और मन को हर विषय से हटाकर इसी बिंदु पर एकाग्र करने का प्रयास करें । यदि
आँखें थक जाएँ दृष्टि और विचार भटकें, तो आँखों को दो-एक बार झपकाकर पुनः प्रयोग करें । आँखों से आँसू बहने लगें तो भी चिंतित न हों, प्रयोग जारी रखें । नाक के अग्रभाग के चारों तरफ उभरते हुए आभामंडल को देखने का प्रयास करें। दिन-प्रतिदिन के अभ्यास से यह आभामंडल, प्रकाशकण, प्रकाश-वर्तुल अथवा प्रकाश-रेखा के रूप में प्रत्यक्ष होने लगता है।
यह आभामंडल मनुष्य की चित्त-दशा, चैतन्य-स्थिति और लेश्या-मंडल का प्रतिबिम्ब है एवं चेतना के प्रवाह की झलक है, साथ ही आज्ञाचक्र एवं प्रज्ञा-केन्द्र के सक्रिय होने का सूचक है।
एकाग्रता के इस चरण से चित्त की चंचलता शांत होती है । भावदशा एवं लेश्याओं का बोध होता है।
द्वितीय चरण : अन्तर्-सजगता
१० मिनट प्रथम चरण से गुजरने के बाद हम अपनी चेतना को सांस के आवागमन के साथ जोड़ें और स्वयं को नासिका मूल स्थित प्रज्ञा-केन्द्र पर केन्द्रित रखें। धीरे-धीरे हम पाएंगे कि हमारी सांसें संतुलित और लयबद्ध हो गई हैं।
साँस के प्रति अपनी सजगता बढ़ाएँ। यह दमित मन के जागरण की स्थिति है, अतः इस सजगता से हमारे विचार-विकल्पों में एक बेचैनी, एक उथल-पुथल मचेगी, जिससे
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