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मुक्ति हो, मृत्यु नहीं
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मिट्टी का है मोह कैसा, ज्योति ज्योति में समानी ॥ जल रही चादर पुरानी..... ।
तन का पिंजरा रह गया है, उड़ गया पिंजरे का पंछी ।
क्या करें इस पिंजरे का,
चेतना समझो सयानी ॥
जल रही चादर पुरानी......
घर कहाँ, है धर्मशाला
हम रहे मेहमान दो दिन ।
हम मुसाफिर हों भले ही,
पर अमर मेरी कहानी ॥
जल रही चादर पुरानी..... ।
जल रही धूं-धूं चिता
और मिट्टी मिट्टी में समानी ।
'चन्द्र' आओ हम चलें अब
मुक्ति की मंजिल सुहानी ॥ जल रही चादर पुरानी..... ।
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