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ध्यान : साधना और सिद्धि
४. योग-चक्र
योग-चक्र सर्वांग व्यायाम है । यह बारह आसनों और योग-मुद्राओं की एक क्रमबद्ध शृंखला है । इसके दैनिक अभ्यास से शारीरिक जड़ता मिटती है । शरीर स्वस्थ, बलिष्ठ और कांतिमय होता है, पाचन-शक्ति का विकास होता है, रक्त एवं प्राण का संचार सुचारु होता है, साथ ही मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों का विकास होता है और आंतरिक पवित्रता बढ़ती है। आवेश और विकल्पों में शिथिलता आती है। आत्मिक तेजस्विता से पूर्ण आभामंडल का विकास होता है। साहस, निडरता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। प्रतिदिन प्रातःकालीन ध्यान से पूर्व यह प्रक्रिया की जाती है।
विधि : सूर्य अथवा अपने इष्ट की ओर मुँह करके ‘नमस्कार-मुद्रा' में खड़े हो जाएँ । हृदय में पूर्ण समर्पण भाव जाग्रत करते हुए प्रकाश-रूप परमात्मा को प्रणाम करें और अग्रलिखित मन्त्र तीन बार उच्चारित करें
तमसो मा ज्योतिर्गमय। असतो मा सदगमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ।* तत्पश्चात् योगचक्र की एक-एक मुद्रा सम्पादित करें । पहली मुद्रा : हस्त-उत्तान-आसन
साँस भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर की ओर उठाएँ । भुजाएँ कान से लगी हुई हों । जितना हो सके, हाथ और सिर को पीछे की ओर झुकाएँ । दूसरी मुद्रा : पादहस्तासन
साँस छोड़ते हुए धीरे-धीरे आगे की ओर झुके । हाथ को पैरों के पास जमीन पर रखने का प्रयास करें । सिर को घुटनों से लगाएँ । घुटनों को सीधा रखें, घुटने मुड़ने न पाएँ । ध्यान रखें जितना झुक सकें, उतना ही झुकें, जबरदस्ती न करें।
* भावार्थ : हे प्रभु, ले चलो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर ।
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